हिन्दू पंचाग के अनुसार चैत्र मास से प्रारम्भ होने वाले वर्ष में पांचवा महीना श्रावण मास सबसे अधिक शुभ मंगल कारी और पवित्र महीना माना गया है। इस मास की पूर्णिमा पर आकाश मंडल में श्रवण नक्षत्र अपनी पूर्णता के साथ जगमगाता है इसलिये इसको श्रावण मास कहा गया है। श्रावण मास को शिव मास भी कहा जाता है। क्योंकि यह महीना साधकों के लिये विशेष मुहूर्तो से युक्त काल होता है। जिसमें सम्पन्न की गई कोई भी साधना सफल होती है।
वेद, पुराणों के अनुसार मन्दराचल पर्वत को धुरी बनाकर वासुकी नाग से बांधकर समुद्र मंथन श्रवण मास में ही सम्पन्न किया गया। समुद्र मंथन से चौदह रत्न प्रकट हुए, तेरह रत्नों को तो सभी देवताओं इत्यादि में बांट दिया गया। अमृत भी निकला जिसे सारे देवताओं ने ग्रहण किया। श्री की उत्पति भी हुई जिसे भगवान विष्णु ने वरण किया। लेकिन इसके साथ ही हलाहल विष भी निकला, वह विष इतना अधिक तीव्र था कि उसे ग्रहण करने की क्षमता किसी भी देवता, राक्षस में नहीं थी। तब सब ने मिल कर भगवान शिव से निवेदन किया कि आप ही आद्या शक्ति से युक्त महादेव हैं आप ही इस संसार को विष से बचा सकते हैं। तब भगवान शिव ने देवतओं के इस आग्रह को स्वीकार कर वह हलाहल विष ग्रहण किया। और उस विष को अपने कंठ में रख लिया। इसी कारण भगवान शिव नीलकंठ कहलाये। लेकिन विष में अत्यधिक तीव्रता थी उस तीव्रता के कारण भगवान शिव के शरीर से तीव्र अग्नि निकलने लगी। सारे ब्रह्माण्ड में ऊष्णता छा गई और देव-दानव मनुष्य हाहाकार करने लगे। तब भगवान शिव ने शीतलता के लिये अपने मस्तक पर चन्द्रमा को धारण किया, लेकिन इसके उपरान्त भी विष कम नहीं हुई तब सारे देवता विचार विमर्श करने लगे कि क्या करना चाहिए जिससे विष की ज्वाला कम हो ओर संसार में पुनः शांति आ सकें।
यह निर्णय लिया गया कि भगवान शिव पर जल धारा प्रवाहित की जाये तो उससे उनका मस्तक थोडा शांत होगा और संसार में शांति आ सकती है। सबसे बड़ी नदी गंगा ही है और देवताओं ने गंगा नदी को आकाश मार्ग से भगवान शिव के ऊपर प्रवाहित किया और निरन्तर जल धारा प्रवाहित की, इस निरन्तर जल धारा के प्रवाह सें भगवान शिव का मस्तिष्क थोडा शांत हुआ और केवल जल धारा से प्रभाव नहीं पड़ा तो देवताओं इत्यादि ने मिल कर भगवान शिव पर दूध की धारा प्रवाहित की। शुद्ध दूध में वह शक्ति होती है कि वह विष के प्रभाव को शांत कर देती है। श्रावण मास में यह सारी क्रिया सम्पन्न हुई और श्रावण पूर्णिमा में पूर्णाभिषेक हुआ।
इसी परम्परा में युगों-युगों से श्रावण मास में शिव के प्रतीक शिवलिंग पर निरन्तर जल धारा ओर दुग्ध धारा का अभिषेक किया जाता है। इस प्रकार का अभिषेक करने से मनुष्य जीवन का विष समाप्त हो जाता है। इसके साथ ही श्रावण मास में सोमवार का विशेष महत्व है, जब पूर्ण विधि विधान सहित भगवान शिव के शिवलिंग स्वरूप का अभिषेक सम्पन्न किया जाता है।
भगवान शिव आध्यात्मिकता के देव हैं तो भोतिकता के भी देव हैं, भोतिक जगत में व्यक्ति को जीवन में परिवार, पुत्र, आनन्द, विद्या, ज्ञान, भयहीनता सब कुछ तो चाहिए ओर ऐसा ही तो भगवान शिव का स्वरूप है। शक्ति स्वरूपा उमा पार्वती सदेव साथ हें, देव अग्रणी गजाननद पुत्र हैं, वहीं शोर्य देव कार्तिकेय दूसरे पुत्र हैं, ऋद्धि ओर सिद्धि पुत्र वधुएं हैं, सब कुछ होते हुए भी आनन्द से युक्त होकर भस्म धारण कर हिमालय वासी हैं अर्थात सब गुणों को रखते हुए भी मोह से परे हैं, जहां शिव है वहां भगवती हें, जहां शिव हे वहों गणपति हैं, जहां शिव हैं वहां शौर्यपति कार्तिकेय हैं, जहां शिव है वहां ऋद्धि ओर सिद्धि हैं। शिव दिगम्बर होते हुए भी भक्तों के ऐश्वर्य को बढ़ाने वाले और मुक्त हस्त से दान करने वाले हैं। श्मशानवासी होते हुए भी तीनों लोकों के स्वामी हैं, अर्धनारीश्वर होते भी योगाधिराज है, मदनजित अर्थात् काम को जीतने वाले होकर भी सदा महाशक्ति भगवती उमा के साथ हें, भस्मधारी होते भी अनेक रत्नराशियों के अधिपति हैं।
माता पार्वती, शक्ति स्वरूप जगदम्बा हें जो कि शिव का ही स्वरूप है, माता गौरी स्वयं अन्नपूर्णा, लक्ष्मी स्वरूप हैं शिव की पूजा साधना करने से लक्ष्मी साधना का ही फल प्राप्त होता है, और सभी देवताओं में अग्र पूज्य गणपति तो साक्षात शिव पुत्र हैं जो सभी प्रकार के विघध्नों, अड्चनों, बाधाओं को समाप्त करने वाले देव हैं। श्रावण मास की साधना से गणपति साधना का ही साक्षात् फल होता हे, इसीलिए कहा गया है कि जहां शिव हें वहां सब कुछ हे ओर जिसने शिवत्व प्राप्त कर लिया, उसने जीवन में पूर्णत्व प्राप्त कर लिया, उसके लिए कठिन से कठिन कार्य भी सरल हे।
कितने आश्चर्य की बात है कि राक्षस भी शिव भक्त हैं, देवता भी शिव भक्त हैं, राम भी शिव भक्त हें, रावण भी शिव भक्त हे, महिषासुर भी शिव भक्त है ओर महिषासुर मर्दिनी शक्ति भी शिव स्वरूपा हैं। ऐसा इसलिए हे कि दो नेत्रों वाला कुछ भूल कर सकता है लेकिन जिसका त्रिनेत्र हे वह उस प्रकाश से, उस आशीर्वाद से किसी को भी वंचित नहीं रख सकता।
शिव की तो महिमा ही निराली हे, प्रसन्न हुए तो कुबेर को देवताओं का कोषाध्यक्ष बना दिया, रावण की नगरी को सोने की बना दिया, अश्वनी कूमारों को सारी आयुर्वेद विद्या सोंप दी, महामृत्युंजय स्वरूप हो कर भीषण से भीषण रोग समाप्ति शिव कृपा साधना से ही प्राप्त होती है। जीवन मे श्रेष्ठता शिवतत्व के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है, श्रावण मास में सम्पन्न की जाने वाली हर साधना सौभाग्यदायक ही रहती है।
श्रावण मास में सम्पन्न किए साधना फल से साधक अपने पूर्व जन्म के दोषों से मुक्त तो होता ही है, इसके अतिरिक्त इस जीवन में भी नई जीवनी शक्ति प्राप्त करता है। श्रावण मास में केवल सोमवार का ही महत्व नहीं है। अपितु अन्य दिवसों का भी विशेष महत्व है। जीवन को चलाने के लिये पारिवारिक सुख-शांति, गृहस्थ सुख, प्रेममय वातावरण आवश्यक हैं। वहीं जीवन को श्रेष्ठ रूप से चलाने के लिये कार्य में वृद्धि भी आवश्यक है। जिसके जीवन में ज्ञान रहता है। वह अपने जीवन में विशेष प्रगति करता है और जब ज्ञान और कर्म साथ होते हैं तो लक्ष्मी आती है। साथ ही पूरे जीवन में तेजस्विता और सम्पत्ति का स्थायित्व होना आवश्यक हे।
मानव जीवन अनेक प्रकार के संघर्षो से जूझते हुए गतिशील रहता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की आवश्यकतायें होती हैं। जिन्हें वह पूरा करने के लिए कड़ा परिश्रम करता है। बनती बिगडती परिस्थितियों के मध्य वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है। किन्तु विपरीत स्थितियों से व्यक्ति के गृहस्थ जीवन में भूचाल आ जाता है। श्रावण मास जीवन की सभी स्थितियों को नियंत्रित करने में समर्थ है। उदाहरण के लिए परिवार के मुखिया विभिन्नं जिम्मेदारियों के साथ आय- प्राप्ति के लिए चिन्तित रहता है, पत्नी अपने अक्षुण्ण सौभाग्य की कामना करती है, किशोर आयु-वर्ग के बालक-बालिकाओं को विद्या प्राप्ति की समस्या होती है, वहीं युवा वर्ग के साथ विवाह, सुखद गृहस्थ जीवन, शत्रुनाश, राज्य-सम्मान इत्यादि स्थितियों को श्रावण मास में नियंत्रित करना संभव हे।
भगवान शिव कि साधना तो तभी सम्पन्न करने के योग्य साधक बन जाता है, जब उसके हृदय में भगवान शिव के प्रति श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न हो जाता है। ग्रन्थों में शिवरात्रि को शिव का प्रिय पर्व माना है। शिवरात्रि के अवसर पर भगवान शिव की साधना तो साधक सम्पन्न करता ही है। परन्तु उससे भी श्रेष्ठ श्रावण मास के सोमवारों को भगवान शिव की आराधना करना श्रेष्ठ माना गया है।
भगवान सदाशिव के परम चेतन्य ऊर्जा को आत्मसात करने के लिये पूज्य गुरूदेव ने सभी साधक-साधिकाओं को शिवोहम् धनदा शक्ति साधना प्रदान करने का निश्चय किया है। जिससे जीवन की सभी विष रूपी व्याधियों का निवारण शिष्य के जीवन में प्रारम्भ हो ओर वह शव से शिवत्व की ओर अग्रसर हों सके।
श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को सम्पन्न की जाने वाली शिवोहम् धनदा शक्ति साधना जो साधक का स्वर्णिम जीवन निर्माण करने में समर्थ है और गृहस्थ जीवन के किसी भी पक्ष से जुड़ा हुआ किसी भी समस्या का हल कर प्रेममय वातावरण निर्मित करती है। जिससे जीवन की दुर्गति का नाश तो होता ही हे साथ में ही जीवन संयमित रूप से लक्ष्य की ओर निर्धारित होती है। जीवन तो प्रत्येक व्यक्ति जीता है लेकिन जीवन की विसंगतियों से संघर्ष करते हुए लक्ष्य पर निरन्तरता बनाएं रखने के लिए श्रावण मास साधना शिवत्व चेतना से आपूरित करती है।
जो जीवन में निरन्तर चलते रहते हैं उनका भाग्य भी अग्रसर रहता है और वही जीवन में पूर्ण रूपेण आयु वृद्धि, धर्म, अर्थ, यश, सौभाग्य व लक्ष्मी की निश्चित रूप से प्राप्ति करता है। श्रेष्ठ गुरू की क्रिया यही रहती है कि इन सभी सुस्थितियों से शिष्य को पूर्णता प्रदान करें। जिससे वे गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए भी अपनी सभी कामनाओं को पूर्णता से प्राप्त कर शक्ति तत्व और शिवत्व को आत्मसात कर पूर्ण हो सकें। ऐसा ही शिवोहम् धनदा शक्ति साधना सामग्री चैतन्य की गई है। जिससे साधक साधना सम्पन्न कर जीवन की जटिलताओं, कठिनाईयों, परेशानियों को समाप्त कर आनन्दमय जीवन की ओर अग्रसर हो सकेगा, साथ ही भोतिक और आध्यात्मिक जीवन में सफलता की ओर अग्रसर हो सकेगा।
इस राशि में साधना सामग्री के साथ-साथ प्रत्येक श्रावण सोमवार को फोटो दीक्षा प्रदान की जायेगी। जिससे कि गुरूत्व शक्ति के द्वारा आप शिव-शक्त से युक्त होकर श्रेष्ठ सफल जीवन की प्राप्ति कर सकें।
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