गुरू शिष्य को अपना समकक्ष बनाने का सदैव प्रयास करता है और इसी कारण से उन्हे स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप धारण करना पड़ता है, परन्तु यह शिष्य की अज्ञानता होती है, जो वह गुरू को सामान्य मनुष्य के रूप में देखता है। Plus d'informations
यदि शिष्य के मन में यह अहंकार भाव है कि मैं एक श्रेष्ठ जiner चाहिये। Plus d'informations
गुरू ईश्वर का प्रतिबिम्ब है जिसे शिष्य साकार अपनी आंखों से देख सकत सकता है। ईश्वर को शिष्य ने भले ही न देखा हो पर गुरू के माध्यम से ईश्वर के हृदय प्रेम की धारœuvreœuvre
गुरूत्व विशुद्ध रहस्यमय ज्ञान है। इसे प्राप्त करने के लिये शिष्य का मन पावन और निर्मल होना चाहिये। जो शिष्य पूरी श्रद्धा से गुरू की सेवा में रत रहता है, उसी गुरू के माध्यम से आध्यात्मिक और भौतिक सुख की्राप्ति्ति.
शिष्यता का पर्याय है नवीनता। जो हर क्षण नवीन हो, जो हर क्षण जीवन में कुछ नया बनने और कुछ नया करने को अग्रसर हो वही शिष्य है।। को को. परन्तु आवश्यकता है कि वह उस म मार्ग पर चले जिस पर गुरू उसे चलाये।
गुरू तो सदा शिष्य की खोज में रहता है और हर व्यक्ति शिष्य बन सकता है, अगर उसमें समर्पण की भावना हो कुछ नवीन करने उसमें इचर्पण.
Plus d'informations जितने महापुरूष हुये हैं उनके जीवन को देखे तो हर एक भिन्न पुष्प की भांति है, हर एक की शैली प्रवाह अंदाज भिन्न है. समानता है अगर तो इस तथ्य में कि हर एक गुरू के द्वारा बताये रास्ते पर निःसंकोच होकर आगे बढ़े।।।।।।।।।।।।
वह शिष्य हो ही नहीं सकता जो गुरू की निन्दा करें, ऐसा दीक्षा प्राप्त शिष्य निश्चय ही नरक में जाताप्त, उसकी्य निश्चय ही्या क्षीणा औ्ती.
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