शिष्य को न तो गुरू-निन्दा करनी चाहिये और न गुरू-निन्दा सुननी चाहिये। यदि कोई गुरू की निन्दा करता है, तो शिष्य को चाहिये कि या तो अपने वाग्बल से अथवœuvre गुरू-निन्दा सुन लेना भी उतना ही दोषपूर्ण है, जितना की गुरू निन्दा करना।
गुरू की कृपा से ही आत्मा में प्रकाश संभव है, यही वेदों ने भी कहcre शिष्य वही है, जो गुरू के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लेकर अपने जीवन के चारों पुरूषार्थो धर्म, अर्थ, काम पुरूषार्थो ध््मf.
गुरू के पास बैठे रहने मात्र से ही साधक के हृदय में ज्ञान का प्रकाश होने लगता है जिसको ब्रह्म प्रकाश कहा गय céré अतः शिष्य को चाहिये कि वह गुरू की निकटता के लिये निरन्तर प्रयत्न करे। जिस प्रकार एक दीपक से दूसरा दीपक पास लाने मात्र से ही जल जiner
शिष्य को नित्य एक नियमित समय पर नियमित संख्या में गुरू मंत्र का साधना रूप में जप अवश्य करना चाहिये, यदि वह ऐसा करता है, तो उसके जन्म-जन्मांतरीय दोषों और पापों का क्षय होता है चित्त निर्मल हो जाता है, जिससे ज्ञान और सिद्धि की भी प्राप्ति हो पाती है। शिष्य को यथा संभव अधिक से अधिक अधिक, जब भी समय मिले गुरू मंत्र का जप करते ही रहना चाहिये।
अगर तुम दुनिया की परवाह करोगे तो दुनिया तुम पर चढ़ बैठेगी, उससे विमुख हो जाओगे तभी तुम दुनिया पर चढ़ सकते हो हो।।। तभी तभी तुम.
शिष्य के लिये पtenir
साधना की राह में कई बार गिरना उठना होता है परन्तु प्रयत्न करने पर सब साधना पूर्ण हो ही जाती है।। साधना पूर्ण हो ही जाती है।
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