Plus d'informations Plus d'informations Plus d'informations Plus d'informations ीवन में करनी ही चाहिये।
गुरू का पद अत्यन्त गूढ, दुर्लभ एवं देवताओं के लिये भी अप्राप्य है तथा गुरूततtenir देवता भी गुरूत्व के प्रभाव के कारण ही विभिन्न लोकों में जाकर पुण्यों का उपयोग करते हैं।।।. Plus d'informations इसलिये शिष्य को सदैव गुरू चरणों में तन-मन-धान तीनों प्रकार से समर्पित बने रहना चाहिये।
शिष्य का तात्पर्य देह से नहीं है है शिष्य का तात्पर्य खडे़ होकर हाथ जोडने से नहीं है है शिष्य का तर हर्य कोई से्षा लेने से्य का तात्पर्य कोई .cre लेने. यह तो एक भाव है कि हम दीक्षा लेकर अपने आपको पूर्ण रूप से गुरू चरणों में विसर्जित करके गुरू से एकाकार हो जाये, वहरके गुरू से एक्काerci प्ररमferci
शिष्य के लक्षण, शिष्य का चिन्तन, शिष्य का विचार मधुर होना चाहिये हर क्षण गुरू की आज्ञा का पालन करें किसी भीरू की्ञा का पालन करें किसी भीर्क य्ञा वितर्क. सेवा, समर्पण और श्रद्धा से ही शिष्य लोहे से कुन्दन बन सकता है।
गुरू तो हर क्षण ही शिष्य को अपने समक्ष बनाने का प्रयास करते है और इसी कारण से उन्हें स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप स्वरूप धारण करना पड़ता है, परन्तु यह शिष्य की अज्ञानता होती है, जो वह गुरू को सामान्य मनुष्य के रूप में देखता है, Plus d'informations
तर्क, अविश्वास और कुविचार से व्यक्ति को शिष्य बनने से रोकता हैं तथा उसे जीवन में. जब व्यक्ति उनसे मुक्त होकर गुरू के सामने प्रस्तुत होता है तभी वह अर्थों में Dieu शिष.
गुरू के हृदय को व्यर्थ छल, आडम्बर, धन दिखाने से नहीं जीता जा सकता। गुरू को शिष्य से कुछ आकांक्षा ही नहीं, केवल प्रेम के अश्रु ही अगर शिष्य उनके चरणों में अर्पित करता है गु्य उनके्रसन्न अर्पित करत.
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