शिष्य चाहे वह बीस दिन पहले जुड़ा अथवा बीस साल पहले, गुरू की दृष्टि में बराबर ही होते हैं।। इसलिये प्रत्येक शिष्य को वरिष्ठ गुरूभ्राताओं अथवiner
यथा सम्भव व्यर्थ की चर्चाओं में न पड़कर गुरूदेव का ही ध्यान, मनन करे। दूसरे की आलोचना अथवा निन्दा करने से शिष्य का जो बहुमूल्य समय अपने्याण में लगाना चाहिये, वह व्यर्थ होाणाता हैा उसकाहिये, वह्यर्थ होाerci की है .cre
यह आवश्यक नहीं कि कोई समस्या हो अथवा जीवन में कोई बाधा आई हो हो, तभी गुरू चरणों में पहुँचकर प्रयोग सम्पन्न्न किया जाये।।. गुरू के दर्शन मात्र से ही शिष्य का सौभाग्य एवं पुण्य कर्म जाग्रत होते हैं हैं इसलिये्य कर्म जाग्रत होते हैं्प__èref.
Plus d'informations यदि किसी वtenir इसलिये श्रेष्ठ शिष्य वह है, जो अपने मन के तारों को गुरू से जोड़ता है।
यदि कोई मंत्र ले, यदि कोई साधना विधि ले, तो गुरू से ही ले अथवा गुरूदेव रचित साहित्य से ले। Plus d'informations
शिष्य का धर्म है कि वह व्यर्थ के वाद-विवाद या चिंतन में न पड़कर पूर्ण तल्लीन होकर गुरू सेवा करे। पूर्ण तल्लीन होकर गुरू सेवा करे। मन पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने का गुरू सेवा से अच्छा कोई माध्यम नहीं है है
गुरू की आलोचना या निंदा करना या सुनना सच्चे शिष्य के लक्षण नहीं। गुरू एक उच्च धरातल पर होते है, इसलिये उनके व्यवहार को समझ पाना संभव नहीं। शिष्य का तो धर्म है कि वह इस ओर ध्यान न दे कि गुरू क्या कर रहे हैं अपितु इस बात पर जोर दे किरू ने उसे क्यात पर जोर दे कि गुरू ने उसे .tien
गुरू तो स्वयं शिव हैं, यही भाव लेकर अगर शिष्य चलता है तो एक स्वयं शिवतत्व उसमें समाहित हो जाता है।।. Plus d'informations इसलिये इसी चिंतन के साथ शिष्य को गुरू का स्मरण करना चाहिये।