इसके अलावा मानव में कुछ विशेषताये भी थी, जो उसे पशुओं से निरन्तर भिन्नता प्रदान करती गई। मानव एक समाजिक प्राणी है, वह आरम्भ से ही समाज में रहना अधिक रूचिकर समझता है और समाज में वास करने के कारण ही उसके जीवन में कई प्रकार की समस्याओं का आवागमन लगा रहता है, जैसे- भरण पोषण की समस्या, आवास की समस्या, मान सम्मान की समस्या आदि अनेक समस्याओं के फलस्वरूप उसमें खोजी प्रवृति का विकास हुआ। प्रारम्भ में उसने गुफाओं में रहना आरम्भ किया, और फिर धीरे-धीरे वे गुफाये ही भवन-निर्माण की कला के ूप में प__ère médecin
प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिये, एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिये लिये, उसे्यधिक कठिन्थœuvre इस पtenir वहीं उससे होने वाली बीमारियों, मृत्यु जैसी दुःखद स्थितियों एवं आने वाले आकस्मिक संकटों ने्य को स्वयं के बारे में सोचने ने मनुष्य कोर दिय्वयं के ब. भरपूर सहयोग प्रदान किया। मनुष्य में छिपी एक अन्यतम शक्ति, जिसे श्रद्धा और विश्वास कहा जाता है, उसकी पहचान हुई।
इसी श्रद Joh निरन्तर मिलती सफलताओं ने मानव को इस अध्यात्म के विषय में और गहराई में जाने के लिये मजबूर कर दिया और उसने समाधि अवस्था को प्राप्त किया, वही ईश्वर से साक्षात्कार हुआ, वही से उसे ब्रह्म का दर्शन हुआ, ज्ञान-विज्ञान की खोज हुई और मानव ने प्रकृति से एकरस होना सीख लिया।
यहाँ उसके जीवन में दो पक्ष रहे, पहला भौतिकता का और दूसरा अध्यात्म का। मनुष्य ने अनुभव किया, कि भौतिकता में सुख तो है है, मगर आनन्द नहीं है और सुख कभी्थाई नहीं होता, क्योंकि किसी्यक्ति्ति. Plus d'informations यदि किसी को धन एकत्र करने में सुख अनुभव होतiner ही है और प्रायः व्यक्ति इस सुख दुःख के पालने में झूलत.
वही एक पक्ष ऐसे व्यक्तियों का भी बना, जो इन समस्याओं का समाधान ढूंढने में लगे हे और उन ऋषियों ऋषियों नेœuvre वेदों की रचना हुई, उपनिषद बने, इस प्रकार अध्यात्म भी भौतिकता के साथ-साथ निरन्तर चलता ही हcreहा और मानव के जीवन कœuvre
''अध्यात्म'' का अर्थ यदि सरल शब्दों में लिया जाय तो स्वयं (आत्मा) का या निज स्वरूप का अध्ययन है, अर्थात् उसे पहचानने की क्रिया है और जब व्यक्ति अपने आप को पहचानने के लिये अपने ही अन्दर उतरता है ध्यान, धारणा के द्वारा, तब उसे एक असीम आनन्द की प्राप्ति होती है है, जहाँ केवल आनन्द ही आनन्द है, दुःख का चिन्ह दूर-दूर तक दिखाई नहीं देतदेत.
हमारे स्वयं के सम्बन्ध, अपना-पराया, हमारा तुम्हारा ये सब तो मात्र विचार है, सत्य स्वरूप तो अपना कुछ है ही नहीं है।. एक चोर का मनोभाव क्या होता है? जब उसके मस्तिष्क में विचार उठता है, कि यह घड़ी मेरी है, और वह उसे चुरœuvre troisième यही हमारे सम्बन्धों की सत्यता है, ये विचार ही हमारे सुख-दुःख, रोग-द्वेष, क्षोभ-पीड़ा, अतृप्ति का कारण बनते है है।
यदि मानव अपने विचारों को अर्थात् अपने मस्तिषtenir
जब एक व्यक्ति समाधि अवसtenir व्यक्ति उस बिन्दु पर आकर रूकता है, जहाँ न राग है है न Dieu महामानव '' बन जाता है, एक सामान्य सा पुरूष '' पुरूषोतम '' बन जाता है।
समाधि अवस्था प्राप्त करने का अर्थ है, दस कलाओं में पूर्णता प्राप्त करना। जिस पtenir अध्यात्म का विकास प्रायः यहीं पर आकर ही समाप्त नहीं हो जाता, इसके आगे अनन्त सम्भावनाओं.
एक सामान्य मानव के जीवन का प्रमुख लक्ष्य होता है, कुण्डलिनी जiner Imp जैसे-जैसे वtenir वह व्यक्ति ऐसे-ऐसे कार्य करने लग जाता है, जिसकी उसने जीवन में कभी कल्पना भी नहीं की थी थी।
एक विचित्र सा साहस, कार्य करने की अद्भुत क्षमता तथा परालौकिक शक्तियों का स्वामी बन जाता है।।. ब्रह्माण्ड को अपनी उंगली के इश इशारे पर चलाने की, उसे गतिशील करने की क्षमता प्राप्त कर लेता हैर वहœuvre प्रायः मानव के शरीर में जब इन्द्रियों की बात होती है तो दस इन्द्रियों की गणना होती है है, जिसमें प्ँचlan. यह बात पूर्णरूप से सत्य नहीं है, यह तो उनके विचार है, जिनकी पूर्ण जानकारी नहीं है है। सतxtef.
T पूर्ण जानकारी रखते थे तथा अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही इस घटना में हस्तक्षेप कर दिया करते थे, वे्रिकालदर्शी, सर्वव्यापी. लेकिन आज मानव ने उन इन्द्रियों का प्रयोग करना ही छोड़ दिया, जिससे वे्द्रियाँ धीरे-धीरे मृत्रायः ही हो गई गई।.
यदि आपने कभी देखा हो, जब एक गाय के शरीर पर कहीं मक्खी या कोई अन्य जीव बैठता है, तो वह अपने चमड़े को उसी स्थान पर हिलर उस जीव को को हट देती क (क्या आपर ऐसœuvre Plus, plus et plus यदि किसी व्यक्ति का हाथ दस साल के लिये प्लास्टर के द्वारा सtenir
क्या इन्हें फिर से जाग्रत किया जा सकता है? तो जवाब निश्चित रूप से 'हाँ' में ही होगा। कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से यही क्रिया प्रायः सम्पन्न होती है। हमने अपने शरीर का प्रयोग करना धीरे-धीरे बन्द कर दिया है, कारण भौतिक सुख सुविधाओं में वृद्धि होना था। Plus d'informations
इस शारीरिक क्षमता को पुनः प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिये? क्या कोई उपाय है, जिसके द्वारा हम फिर से पूर्ण प्रज्ञावान एवं पूर्ण चैतन्य बन सकें सकें सकें सकें सकें? इसका जवाब 'हाँ' ही होगा। इसके लिये हमे आवश्यकता है एक पूर्ण प्रज्ञावान, चैतन्य पूर्ण, सोलह कला युक्त जीवित-जाग्रत सद्गुरू की, जो अपने शरीर के स्पर्श से, शक्तिपात के माध्यम से, योग के माध्यम से तथा साधना के माध्यम से, जो भी तरीका अनुकूल हो, आपकी कुण्डलिनी जाग्रत कर सके तथा अपनी शक्ति से आपके पूरे शरीर को दिव्य व चैतन्य बना सके।
aime ta mère
Shobha Shrimali
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