शिष्य का जीवन गुरू से जुड़ कर ही पूर्ण बनता है, जीवन की यात्रा तो संसार में जिसने भी जन्म लिया है करता ही है लेकिन कितने व्यक्ति्ति्ति. सद्गुरूदेव जी ने इस प्रवचन में शिष्य धर्म की पहचान तो स्पष्ट की है, साथ ही जीवन जीने की कला को अपने विशिष्ट भाव प्रवाह वाणी में स्पष्ट किया है उसी प्रवचन का सारांश-यह श्लोक वशिष्ठोपनिषद से लिया गया है और उसमें गुरू और शिष्य का एक विशेष वर्णन आया है।
Plus d'informations रीरं।
चित्रं मया पूर्ण मदीव नित्यं, विश्वो ही एकं विश्वेठवनंजं ।।
इस श्लोक में ऋषि वशिष्ठ ने कहा है, कि जीवन में कई लाख योनियां भटकने के बाद में यह मनुष्य शरीर मिलता है और आप सब्य हैं्य शरीर वर्ष और आप सब्य हैंtinevel. उसमें पहले पंक्ति में कहा है कि 'गुरू' हमार जाति, गुरू हमार गोत्र। बंगला में उसका ट्रांसलेट किया गया है कि हमारी जाती अब कुछ नहीं रही, हमारा गोत्र भी कुछ नहीं रहा। गुरू ही हमारा नाम है, गुरू ही हमारा जाति है, गुरू ही हमारा गोत्र है, गोत्र का अर्थ- वंश परंपरा। क्योंकि 'जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात द्वित द्वित उचच Plus d'informations शूद्र का मतलब कोई जाति विशेष से नहीं है, जिसको मल का, मूत्र का, शुद्धता का, अशुद्धता का भान नहीं हो वह्र है। और जिसको इस बात का ध्यान है कि शुद्धता हो, पवित्रता हो, दिव्यता हो, श्रेष्ठता हो, मन में करूणा हो, प्रेम हो वहा ब्रmuniह्मण्मण.
प्रत्येक व्यकtenir मां उसको स्वचtenir है वहीं मूत्र कर लेता है, मल कर लेता है और उसी पर खेलता रहता है।
उसको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि मैं क्या हूं और जब वह गुरू के पास में आता है, तब négation उसको यह समझाते हैं कि यह उचित है, वह अनुचित है और आज से तुम मेरी जाति के हो, मेरे गोत्र के हो, मेरे नाम के हो, मेरे ही पुत्र हो।।।. तो संस्कारात द्विज, द्विज का मतलब है, दूसरी बार जन्म लेने वाला। द्विज— 'ज' जन्म लेने वाला, तथा 'द्वि' दूसरी बार।
परिवार ने उसको एक बार जन्म दिया, वह तो मां-बाप ने एक संयोगवश दे दिया, कोई प्लान नहीं था, प्लानिंग नहीं थी उनकी उनकी्लान नहीं ऐसी. वह तो प्रकृति की एक लीला थी और कुछ व्यक्ति और अधिकiner फिर संस्कार जब मिलता है, तो संस्कार के कारण वापिस से उसका जन्म होता है। T लेते हैं- चाहे पान खाना हो या मिठाई खाना हो। मिठाई इतनी स्वादिष्ट और इतनी महंगी है, वह हम खाते हैं तो शाम को विष्ठा ही बनती है। सुबह हम उसको देखना भी नहीं चाहते, इतनी गन्दी और घृणित होती है। ये शरीर अपने आप में कोई सुगन्धमय नहीं बना क्योंकि हमने जो कुछ भी फल खाये, सेब खाये, अनार खाये, केले खाये, या मिठाई ख céré. Plus d'informations पशु भी हमसे अच्छे हैं, गाय घास खाकर भी दूध उत्पन्न कर लेती है, हम मिठाई खाकर भी विष्ठा उत्पन्न करते हैं।. Plus d'informations
Plus d'informations यही जीवन का उद्देश्य है, यही जीवन का धर्म, यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं है, तो शूद्र बन कर भी जीवन व्यतीत किया जाता है। उसको कोई रोकता नहीं है। उस जीवन में आनन्द नहीं है, उस जीवन में सुख नहीं है, उस जीवन में तृप्ति नहीं है और यदि आप उत्तम कोटि के वस्त्र पहन औ.
इस शरीर को यदि आप चार पांच दिन तक धोयेंगे नहीं तो यह शरीर दुर्गन्धमय बन जायेगा। आप चाहे कितना ही पाउडर, लिपस्टिक, क्रीम लगाये तब भी शरीर पर झुर्रियां पड़ ही जायेंगी। Plus d'informations 'शरीरं शुद्धं रक्षेत देवालय देवापि च'। ये भगवान का मन्दिर है। जहां भगवान का एक मन्दिर हो, उसमें बाहर एक चार दीवारी होती है, चार दीवारी के अन्दर एक कमरा होता है, कमरे के अन्दर एक और कमरा, उसके अन्दर भगवान की मूर्ति का स्थापन किया जाता है, ठीक उसी प्रकार से अन्दर एक ईश्वर है Plus d'informations फिर यह चमड़ी ऐसी है जैसे चार दीवारी हो और ये चार दीवारी टूट जाती है तो भी पशु अन्दर घुस सकता है, कि हमें हर क्षण यह ध्यान रहे कि अन्दर मूल मन्दिर में भगवान बैठे हुए हैं या जिनको हमने गुरू कहा है।
गुरू अपने आप में कोई मनुष्य नहीं है, यदि हम किसी मनुष्य को गुरू मानते हैं वह वह हमारी न्यूनता है।। एक क्षण ऐसा आता है, कि
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यह शिव है वही गुरू है। यह गुरू है वही शिव हैं। Plus d'informations जो हमारा कल्याण कर सकें। जो इसमें भेद मानता है, वह अधम है। गुरू और शिव में भेद रहता है, जब तक हम शूद्र रहते हैं तब तक भेद रहता है और एक क्षण ऐसा आता है जब साक्षात् उस शिवत्व का उस्तेाणाकात् दर्शन. जब दर्शन करने लग जाते हैं तब ब्राह्मण वृत्ति की ओर बढ़ने लग जाते हैं। तब इस बात का भान नहीं रहता कि हम घर में सूखी रोटी खा रहे हैं या घी चुपड़ा हुआ है या नहीं या पुड़ी, या सब्जी हैœuvre , et plus इसलिए वह भेद तो मिट जाता है। Plus d'informations जब उससे परे हट जाता है कि जो कुछ मिल जाता है प्रभु का प्रसाद है हमें स्वीकार करना चाहिये। साधु तो केवल जंगली फल और हवा, वायु और जल इनका सेवन करके भी अपने आप में Dieu हृदय में चिंतन आ जériche आपइसका जैसा उपयोग करना चाहें, करें। T । मेरा तो उद्देश्य, मेरा लक्ष्य वही है कि आपने जो क. इसलिए शिष्य को गुरू के हाथ, गुरू के पैर, गुरू की आंख, गुरू का मस्तिष्क कहा गया है। क्योंकि गुरू अपने आप में कोई सागर बिम्ब नहीं है, निराकार को एक मूर्ति का आकार दिया गया है।।।।।।।।।। ये सारे शिष्य मिलकर के एक गुरूत्वमय बनता है, एक आकार बनता है। इसलिये अगर मैं घमण्ड करूं कि मैं गुरू हूं, यह मेरा घमण्ड व्यर्थ है।
क्योंकि हम विकार ग्रस्त हैं। हमारा ध्यान इसलिये नहीं लगता, क्योंकि हमारा चित्त चंचल है, भटकता रहता है, तो शास्त्रें ने मूर्ति का आकार दिया कि यह्रें ने मूर्ति का आकार दिया कि यहर्ति है. क्योंकि एकदम ध्यान लगता नहीं तो उस जगदम्बा की मूर्ति को देखते हैं कि अच्छा ऐसी्बा है। देखते हैं कि. यह प्रतीक मान कर ध्यान लग जाता है। ये सगुण रूप है, आगे जा करके व्यक्ति, निर्गुण रूप में आ जाता है, उसके सामने मूर्ति, चित्र या बिम्ब कुछ होता ही नहींर्ति, चित्र या बिम्ब कुछ्योति होतœuvre Plus d'informations फिर उसका भी अपने आप में शरीर के प्रति कोई गर्व या घमण्ड नहीं होता। वह तो उसके काम आ जाए, वह उसका उपयोग ले और ऐसे जीवन चिन्तन की प्रक्रिया, ऐसे जीवन का विचार और धारणा जब बनती है तब हम सही अर्थों और मनुष्यcre यह धारणा बननी चाहिये, यह विचार आना चाहिये, कि बहुत कम समय है हमारे जीवन में और केवल आधा घंटा भी हमरू को प पायें तो यह श्रेष्ठता है। को दे प. जीवन के बाकी तो हमें कार्य करने ही है और गुरू कार्य में हमारा कोई स्वार्थ नहीं है, कोई्ष्य नहीं है है।
स्वार्थ तो पशु करते हैं, कि एक रोटी फेंक देते हैं एक कुत्ता रोटी उठाता है, दूसरा कुत्ता उस पर झपटता है। वहां स्वार्थ है। Plus d'informations Plus d'informations Plus d'informations ऐसा भाव की मैं जमीन पर सो रहा हूं या पलंग पर सो रहा हूं या मैं अच्छा खा रहा हूं या बुरा पी रहा हूं ये अपने आप में महत्वपूर्णर. महत्व इतना है कि हमारा शरीर टूटे नहीं, बिखरे नहीं, खायेंगें नहीं तो शरीर बिखर जायेंगा, भोजन नहीं करेंगे तो शरीर कमजोर हो जायेंगा और कमजोर हो जाएगा तो चार दीवारी टूट जायेगी तो उस मन्दिर में अन्दर कोई बदमाश, कोई घटिया आदमी, कोई पशु घुस जायेगा। Plus d'informations इसकी ईट कोई खिसके नहीं, यह शरीर कमजोर बने नहीं मगर शरीर को मजबूत बनाने के लिए्तम भोज्य पदार्थ आवश्यक नहीं है, अनिवार्य नहीं्य पद. मिल जाये तो ठीक नहीं मिलें तो ठीक, पलंग मिला तो ठीक है नहीं मिला तो ठीक है। ऐसी जब मन में भावना आती है और जब वह धारणा बनती है, तो एक क्षण के बाद में समाधि की अवस्था आ जाती है।। में समाधि की. तब हम बैठते हैं तो हमारी आँखों के सामने गुरू का बिम्ब बिल्कुल साकार स्पष्ट हो जाता है, वह चाहे हजार मील दूर हों।।.
ऋषि वशिष्ठ के उपनिषद् में कहा है कि ऐसा तो शिष्य पैदा ही नहीं हुआ हुआ, हो ही नहीं सकता, शिष्य नहीं कहला सकता क्योंकि सबसे पहले तो. , उससे मिलता है, जुड़ता है और आते ही उसने गुरू दीक्षा ले ली तो शिष्य नहीं बन गया। Plus d'informations, plus d'informations उसके मन में होता है कि यह गुरू है कि नहीं है, मतलब एक तर्क विर्तक पैदा होता रहता है, यह कैसा गुरू है, यह खुद भी कभी कभी उद. । ये कभी-कभी उदास हो जाते हैं, कभी-कभी विचलित हो जाते हैं, हमें तो कहते हैं कि जमीन पर सोओ ये तो खुद पलंग .ve तो यह गुरू कैसे हो गये ? ये तो मेरे सामने केले खा रहे थे, तो क्या यह गुरू है भी कि नहीं है।। इनको हम गुरू मानें कि नहीं मानें ? ये तर्क वितर्क पैदा होता है, तर्क वितर्क चलता रहता है, शिष्य नहीं वह जिज्ञासु कहलाता है। Plus d'informations उस भोजन करने से क्या फायदा हो जायेगा, भोजन नहीं करें तो कौन सा मर जायेंगे। ये सब जिजtenir अभी मनुष्य वह बना नहीं, अभी जिज्ञासा है, तर्क वितर्क है, संदेह है, भ्रम है। और यह संदेह, यह भ्रम आपके खून में हैं। यह तर्क वितर्क से भरा है क्योंकि उनके मन में ऐसा विचार था, ऐसा चिन्तन था। Plus d'informations उनके जीवन में ऐसा कोई गुरू मिला ही नहीं, उनको कोई ऐसा रास्ता दिखाने वाला मिला ही नहीं। Plus d'informations, plus d'informations उस परिवेश, उस वातावरण ने, उस खून ने तर्क वितर्क पैदा किया। इसलिये पहले मैंने कहा कि 'गुरू हमारी जाति है अब वह पुरानी जाति नहीं रही'। Plus d'informations Plus d'informations 'एकोहि वाक्यं गुरूम् स्वरूपम्' गुरू ने कहा है वही वाक्य है।
इसलिये ऋषि वशिष्ठ कहते है, कि तर्क वितर्क से अगली जो स्टेज है वह शिष्यत्व की्टेज हैर और तर्क वितर्क से अगली्टेज शिष्यत्व्व. दोनों में अंतर है। Plus d'informations गुरू किसी से किस ढंग से बात करेंगे, किसी को प्रेम से बात करेंगे, किसी को डांटेंगे, किसी के पास बैठेंगे, किसी के पास नहीं बैठेंगे बैठेंगे। कृष्ण गोपियों के पास बैठते थे तो हम हमारा भ्रम, तर्क-वितर्क कहता है तो तो्कुल कृष्ण है ही नहीं नहीं। है तो बिल्कुल कृष्ण है ही नहीं। ये तो बहुरूपिया है।
Plus d'informations वही व्यक्ति जब गीता का उपदेश देते है तो महान विद्वान कहलाते है। वही दुर्योधन पर प्रहार करते है तो एकदम शतtenir Plus d'informations मैं हूं तुम्हारा ईश्वर। मैं तुम्हारा गुरू हूं। Plus d'informations मै तुम्हारा मित्र नहीं हूं, सारथी नहीं हूं, मैं तो सम्पूर्ण ईश्वर हूं। तो ये कोई घमण्ड नहीं कर रहा था। कृष्ण जब गीता में बता रहे थे कि तुम यों नहीं समझो तो यों समझो कि इतने सैंकड़ों पेड़ हैं, उनमें मैं पीपल का पेड़ हूं, क्योंकि वह्र है, मुझे पीपल. Plus d'informations तुम जिस तरीके से मुझे समझना चाहो समझ लो, समझ लोगे तो ये भ्रम तुम्हारा मिट जाएगा। Plus d'informations
इसीलिये मैं जो करता हूं वह तुम मत देखो, उसका अनुसरण तुम मत करो। जो मैं कहूं उसका तुम अनुसरण करो, मैं तुम्हें कहूं युद्ध के लिए तैय तैयार हो जा, खड़ा हो जा तो उस समय खड़ा हो जा। कोई जरूरी नहीं है कि तीर फेंको। तुम केवल मेरी आज्ञा पालन करो। तुम मेरा अनुसरण मत करो जो मैं करता हूं इसलिये जब ऐसी स्थिति आ जाती है कि उन्होंने कहा और हमने किया वही शिष्यत्व है। उस समय एक क्षण भी विलम्ब होता है तो समझना चाहिये शिष्यत्व में न्यूनता है।
गुरू कोई ऐसा आदेश देता भी नहीं, देता भी है तो गुरू नहीं है है, गुरू की कसौटी है कि ऐसा कोई आदेश नहीं दे जो उसके सामर्य्य के बर हो हो दे जो उसके सामर्य्य के ब__ère हो। गुरू कोई ऐसा आदेश नहीं दे जो अपने स्वार्थ के लिए हो, गुरू कोई ऐसा आदेश ना दे जो अपने्रयोजन के लिये हो।।. शिष्य सोचे इस समय गुरू को क्या जरूरत है और इसलिये तीसरी पंक्ति में्ठ ने कहा है कि सैंकड़ों. जब दूर बैठा हुआ व्यक्ति उदiner पति बैठे हैं, पत्नी बैठी है, बल्कि खेल रहे हैं, मिठाई आ ही ही है और फिर भी उदासी छाई हुई है और जब ऐसी उदर छ छाये, तो समझ लेन चœuvre Plus d'informations
Plus d'informations ऐसा शिष्य हुआ भी क्या कि गुरू रात में तड़पते रहे और शिष्य को नींद ज जाये, उसे शिष्य कह नहीं सकते।। आ ज. ऐसे कैसे हुआ कि गुरू रात में बीमार बुखार से तड़पता रहे और तुम्हे नींद आती रही, तो तुम जुड़े नहीं, तुममें शिष्यत्व नहीं आया। क्योंकि अलग तो हो ही नहीं सकते। एक ही जाति, एक ही गोत्र, एक ही प्राण, एक ही चेतना, एक ही धड़कन। ऐसा तो हो ही नहीं सकता, पैर में कांटा चुभे और तकलीफ नहीं हो हो। Plus d'informations हृदय में तकलीफ होगी होगी, वेदना होगी, इसलिये गुरू और शिष्य का एक ही शरीर होता है, दो तो दिखाई देते हैं परन्तु दोरीर एक प्राण होतहोतहै उन__ère कोरीर एकœuvre
चौथी पंक्ति में कहा गया है कि जब जिज्ञासु वृत्ति समाप्त हो जाती है, तर्क-वितर्क समाप्त. पर भी हो तब भी हर क्षण मेरे पास मे हैं। चलता हूं, उठता हूं, बैठता हूं, बात करता हूं, तो बिलकुल मेरे पास ही विचरण कर रहे हैं। Plus d'informations वह ही पास में बैठे हैं। Plus d'informations उनको आंच आ रही है तो मैं जल रहा हूं, धूप में खड़े हैं तो मेरा सिर दर्द हो रहा है, क्योंकि वह शरीœuvre वो शरीर जल्दी समाप्त हो जायेगा, तो ज्ञान वहां समाप्त हो जायेगा।
इसलिये वह ज्ञान और ज्यादा फैले इसलिये उसकी शरीर की कlanष. अगर वह तनाव में रहेगा तो कुछ कर नहीं पायेगा, लिख नहीं पायेगा, कुछ ज्ञान चेतना नहीं दे पायेगा। इसलिये उसके मस्तिष्क को जीवित रखना भी एक शिष्य का धर्म है, इसलिये शिष्य को आंख कहा गया है, नेत्र कहा गया है, हाथ कहा गया है, पार कहा गया है है. वह सब मिलकर के फिर जब नई स्थिति बनती है तब वह अपने आप चौथी अवसtenir कबीर ने कहा है कि- फूटा कुंभ जल, जल ही समाना यह तथ कहा ग्यानी।
एक घड़े में पानी है, एक नदी में भी पानी है और नदी के अंदर वह घड़ा है। इस संसार में आप हैं, एक गुरू के हृदय में आप हैं मगर उस पानी और इस पानी में अन्तर है, क्योंकि वह के अन्दर बन्द है।। क्योंकि वह के अन्दर बन्द है। वह पड़ा-पड़ा पानी सड़ जायेगा। आज नहीं सड़ेगा घड़े का पानी तो पांच दिन के बाद में कीटाणु पड़ जायेंगे। ज्योहि वह घड़ा फूटा जल-जल ही समाना, वह जल उस जल में मिल जाएगा। जो आपके ऊपर संदेह का आवरण, जो घड़ा है, जो जल मिला नहीं, मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है, मिला नहीं पा रहा हैर वह घड़ा जब फूटेग. आपका जब मोह, जब आपकी माया, जब आपका भ्रम, जब आपका संदेह, जब आपका अप्रेम फूटेगा तभी, जल जल ही समान, आपका शरीर, आपका प्राण उनके प्राणों से जुड़ जायेंगे तो यही तथ्य कहा, चिंतन कहा इसलिये यही ज्ञान है, यही चेतना है।
यह ज्ञान जब हमारी चेतना में व्याप्त हो, तब इस शरीर से अपने में में्ध-व्याप्त. Plus d'informations फिर कृष्ण के शरीर से जैसे अष्ट गन्ध निकलती है वैसे उस व्यक्ति के शरीर से भी्ट गन्ध निकलने लग जœuvre अपने काम में लगा रहता है। एक अजीब सी खुमारी है और वो खुमारी तभी आ पायेगी, जब उसके अन्दर एक कtenir Plus d'informations अपने आप में चेतना पैदा होगी और ऐसी चेतना पैदा होने पर ही वह अपने आप में चौथी अवस्था में आकर के गुरूत्वमय बनता है।।।. Plus d'informations दीक्षा देते ही नहीं हो जाता। Plus d'informations वशिष्ठ कह रहे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को यह चिन्तन करना चाहिये कि मैं कहां पर खड़ा हूँ।।. पहली क्लास में खड़ा हूं या दसवीं की परीक्षा दे रहा हूं या एम-ए- का एक्जाम दे रहा हूं, कहां हूं।।।. Plus d'informations पांच साल के प्रहलाद को ज्ञान हो गया था और साठ साल के हिरण्यकश्यप को Dieu Plus d'informations तो वो चेतना तब व्याप्त होती है, जब कोई सूखी लकड़ी किसी चन्दन से घिसती है, घिसने पर वही सूखी लकड़ी खैर की लकड़ी होती उसमें भी सुगन्ध व्य्प्त्त.
जब आप गुरू के शरीर से, गुरू के आत्म से, गुरू के पांव ये घिसेंगे अपने आपको एकाकार कर सकेंगे, आप में सुगन्ध व्याप्त होगीर सकेंगे।। भी सुगन्ध व्याप्त होगी ही होगी।। जब सुगन्ध व्याप्त होगी, तो ऐसी खुमारी आयेगी, एक मस्ती आयेगी। फिर काम करते हुए थकेंगे नहीं आप। फिर आप को यह लगेगा कि मेरा शरीर, मेरा समय नष्ट हो रहा है, मैं और क्या काम करूं, कैसे करूं, कैसेर क्या काम करूं, कैसे..
शिष्य को यह सोचना है कैसे मैं गुरू का विश्वास पात्र बन सकूं। मेरे ऊपर वे निश्चित हो सकें और ज्यों-ज्यों आपका क्रोध और आपका अहंकार गलता जायेगा, त्यों-त्यों आप उसमें एकाकार होते जायेंगे।।. यह क्रिया आसान भी है। आसान इसलिये है कि जिस क्षण आप पहला पांव आगे बढ़ा देंगे, तो दूसरा पांव स्वतः बढ़ जाएगा। दूसरा, तीसरा, आठवां, दसवां और एक दिन अपनी मंजिल तक पहुँच ज. मगर समय बहुत कम है उसमें बीस साल का गैप, पच्चीस साल का गैप, पन्द्रह साल का गैप नहीं रख सकते। जितना जल्दी उस मंजिल को पार-कर लेंगे, वही हमारे जीवन की एक गति होगी होगी, सुगति होगी, उन्नति होगी्रेष्ठता होगी, पूर्णता होगी।
Plus d'informations यह बहुत बड़ी बात कही है उपनिषद् ने। Plus d'informations इस उपनिषद्कार ने कहा कि हम स्वयं ब्रह्म हैं तो फिर विधाता कौन है? हम स्वयं विधाता हैं। इसलिए ब्रह्म की परिभाषा इस श्लोक में की गई है कि पांच साल कiner जो गुरू के समीप रह सकता है और गुरू के हृदय में प्रवेश कर सकता है ब्रह्म है। यह श्लोक ने परिभाषा दी है। जो गुरू के समीप रहता है शारीरिक रूप से या आत्मिक रूप से वह ब्रह्म है .ve गुरू को भी आप पर स्नेह रहे, वह तब रहेगा जब आपका कार्य होगा, जब आप नजदीक होंगे, आप उनके आत्मीय होंगे। Plus d'informations Plus d'informations
Plus d'informations ब्रह्मचारी रहने को ब्रह्म नहीं कहा, शास्त्र पढ़ने वाले को ब्रह्म नहीं कहा गया और ऐसे सैकड़ों ऋषि हुए्होंने्होंने विधिवत्ञानान प्राप्त्त्हmédi स. विश्वामित्र सैकड़ों वर्षों तक ब्रह्म नहीं कहलाये क्योंकि वे अपने गुरू को में में उतार नहीं पाये। अपने अहंकार की वजह से, घमंड की वजह से, अलग धाराणाओं की वजह से ब्रह्म ऋषि नहीं कहला पाये और बहुत बाद में जब .œuvre
इसका तात Joh कौन है। हजारों लाखों शिष्यों के नाम होठों पर नहीं खुदते और होठों पर नाम अंकित करने के लिए गुरू के हृदय में उतरना आवश्यक होता है और उसके लिए असीम प्यार की्यकता होती और उसके लिए असीम पlan. समर्पण की आवश्यकता होती है और प्राणों से प्राण जुड़ने की जब क्रिया होती है तो प्राणों में उतरा जiner जिसके बिना संसार सूना-सा लगे उसके हृदय में उतरा जा सकता है।
हृदय में उतरने के लिए आपकी परसनैलिटी, आपकी सुन्दरता, आपकी महानता, आपकी विद्वता, आपके ज्ञान वे सब अपने आप में गौण हैं।।। ज. इसलिये श्वेताश्वेतरोपनिषद में भाग्य और दुर्भiner उसमें सब कुछ आपके हाथ में सौंप दिया कि आप स्वंय ब्रह्मा हैं, आप स्वयं भाग्य निर्माता हैं, आप स्वयं दुर्भाग्य के निर्माता हैं, आप स्वयं उपनिषद्कार हैं आप स्वयं गुरू के हृदय में उतरने की क्षमता रखते हैं, सारी बागडोर आपके हाथ में सौंप दी उस उपनिषद्कार ने और मैं समझता हूं कि 108 उपनिषद्कारों में से इसने बिल्कुल यर्थात् चिंतन किया है।
Plus d'informations इसलिये कि पहली बार एहसास हुआ कि हम सामान्य मनुष्य नहीं हैं, हम स्वयं नियंता हैं, निमार्णकर्ता हैं।।।।. मैं बहुत कुछ हूं और मैं स्वयं का निमार्ण करने वाला हूं और मैं सामान्य शरीर से प्रारम्भ होकर बहुत बहुत ऊंचाई तक पहुँचने व्राerci हूँ होक. Plus d'informations एक भी महापुरूष नहीं हुआ। आगे जाकर के महापुरूष बने। Plus d'informations Plus d'informations राजा के पुत्र थे वे सब। शुरू में सामान्य बालक थे, वैसे ही दौड़ते थे, घूमते थे थे, खेलते थे। वैसे ही थे जैसे हम और आप हैं। बाद में जाकर उन्होंने उस चीज को समझा जिसका मैंने अभी उल्लेख किया कि मुझे अगर कुछ निर्माण करना है और कुछ बननर है निर्माण करना हैर कुछर कुछœuvre
जब यह भाव आपके मन में रहेगा तो यह भाव भी रहेगा कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। यह भाव हो कि मैं तो अपना खुद का हूं, नहीं मैं किसी के हृदय में उतर चुका हूं। जब उतर चुका हूं तो यह उनका कर्त्तव्य है कि वह मुझे उस जगह जगह पहुँचाये। पत्नी शादी करने के बाद निश्चित हो जाती है कि यह पति का कर्त्तव्य है कि झोपड़ी में खे पति महलœuvre Plus d'informations
Plus d'informations सूर ने कहा है कि मैं कृष्ण की प्रयेसी हूँ, इसीलिये जायसी ने कहा कि मैं तो सही अर्थों में नारी हूं हूं्वर कीरी हूं, द न__° ये सब पुरूष हैं जिन्होंने ये बातें कही और इसीलिये कही कि इन्होंने अपने आपको ईश्वर के हœuvre Plus d'informations मगर जीवन में यह भाव उतारने की क्रिया होनी चाहिये केवल बोलने की क्रिया नहीं होनी चाहिये। Plus d'informations Plus d'informations अंतर यहीं पर आता है। जब आप आपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर देंगे तो ब्रह्म बन पाएंगे।
पूर्ण रूप से समर्पित करने का मतलब है कि आप अपना अस्तित्व खो दें दें यह भूल जायें कि मैं क्या हूं आप कुछ प्राप्त्त. मैं शिष्यों के पास बैठता हूँ तो एक घण्टा खोता हूं, मगर यह नहीं खोता, तो आपका प्यार, आपका समर्पण नहीं पाता।
हम द्वन्द्व में जीते हैं और पूरा जीवन द्वन्द्व में बिता देते हैं। चाहे गृहस्थ है या संन्यासी है, पूरा जीवन द्वन्द्व्व में बिताते हैं। जीवन के अस्सी साल की उम्र में सोचते हैं क्या करें, क्या नहीं करें। प्रतिक्षण आपके मन में तर्क-वितर्क चलता ही रहता है और आप निर्णय नहीं कर पाते। लोग जहां आपको ठेलते हैं आप ठेल जाते हैं क्योंकि आप अपने हाथ में नहीं होते। ऐसे व्यक्ति साधारण होते हैं, मुट्ठी भर व्यक्ति, लाख में से एक दो्यक्ति्ति अपना जीवन अपने हाथ में एक हैं व्यक्ति अपना जीवन अपने हाथ में खते हैं।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। औरंगजेब जब राजा बना तो उसको हाथी पर बिठाया गया कि हमारे यहां पर यह परंपरा है कि हाथी पर बैठकराजतिलक किया जरा है है।
Plus d'informations बैठने के बाद उसने कहा मुझे लगाम दीजिये जिससे कि मैं इसे चलाऊं, जैसे घोड़े की लगाम होती हैं, ऊंट की होती है।। Plus d'informations वह एकदम से नीचे उतर गया, उसने कहा कि मैं इसकी सवारी नहीं करूंगा जिसकी लगाम नहीं होती। Plus tard, plus tard वह जीवन भी काम का नहीं है जिसकी लगाम आपके हाथ में नहीं है है। आपका अर्थ है कि शिष्य और गुरू का एकात्म क्योंकि आप तो अपने आप समर्पित कर चुके। T यदि आपको कोई गाली दे दें तो कोई उसे सुने या नहीं सुने, गुरू उसे सुने या नहीं सुने मगर वातरण में वह बात तैरती हैर आपकोœuvre आप जब भी ऐसी कोई बात करते हैं, निन्दा करते हैं या गाली देते हैं तो अपने आप में एक सीढ़ी नीचे. जब भी आप चिंतन करते हैं कि आप उन मुट्ठी भर लोगों में से एक बनेंगे बनेंगे, बनूंगा तो नानक बनूंगा, वीर विक्रमादित्य बनूंगा, तो एक एक कदम आगे बढ़ ज्ते हैं।।. विक्रमादित्य भौतिक दृष्टी से एक पूर्णता प्राप्त राजा और नानक एक फक्कड़ दिव्यमय ज्ञानी. Plus d'informations शेक्सपीयर ने कहा कि दिन में गधे की तरह जीना चाहिये और रात में राजा की तरह जीना चाहिये। श्वेताश Joh सिक्के को हम दो भागों में नहीं बांट सकते कि यह सिक्का अगला भाग है और यह पिछला भाग है। सिक्के दो भाग अलग-अलग होते नहीं। एक ही सिक्के के दो भाग होते हैं।
इसी तरह एक ही परसनैलिटी के दो भाग होते हैं जिसमें एक को गुरू कहते हैं, एक शिष्य कहते हैं। दोनों को मिलाकर एक पूरा सिक्का बनता है और वह बाजार में चलता है, जीवन में चलता है। जब शिष्य गुरू में मिल जाता है, प्रसन्नता के स. एकनिष्ठता का अर्थ है निरन्तर गुरू कार्य में संलग्न और सचेष्ट रहना। Plus d'informations Plus d'informations आप गुरू को देखें या नहीं देखें परन्तु प्रतिक्षण उनके कार्य में Dieu क्षण को। इस क्षण में मैंने कुछ सृजन किया है, व्यर्थ नहीं किया है इस क्षण को। Tous les autres इस क्षण में किसी का स्मरण किया है, किसी के हृदय में उतरने की क्रिया की है। क्षण आपका है, आप चाहें दो घंटे ताश में बिता दें, वह चाहे आप चिंतन करके या कोई कार्य करके बिता दें।
भाग्य या जीवन तो आपके हाथ में है। Plus d'informations Plus d'informations उनमें कुछ विशेषता है ही नहीं, उन्हें पता ही नहीं कि उनके आस-पास कौन रहता है। शिव कहां रहते हैं यह मुझे मालूम है क्योंकि हर क्षण मैंने सृजन किया है। इस पद को प Joh जलाया है तो आज पूरा देश पूरा विश्व मानता है कि यह कुछ परस्नैलिटी है। उस सृजन को करने के लिए व्यक्ति को अपने आप को जलाना ही पड़ता है। खून जल जाता है तो वापस आ जाता है, मांस जल जाता है तो वापस आ जाता है, मगर गयiner-हुआ समय वापस नहीं आत. अगर मैं कंकाल भी हो जाऊं, मांस भी गल जाये तो मांस वापस चढ़ जायेगा। मांस चढ़ाने वाले बहुत मिल जायेंगे जो मिठाई खिला देंगे, घी खिला देंगे, मालिश कर देंगे तो मांस चढ़ जायेगा।
मगर कोई मुझे ज्ञान नहीं सिखा सकता, धर्म शास्त्र नहीं सिखा सकता, धर्म शास्त्र का सार नहीं सिखा सकता। Plus d'informations मुझे महानता कोई नहीं दे सकता। वह तो सब मुझे खुद को प्राप्त करना पड़ेगा, इसके लिए खुद को जलाना पड़ेगा। Plus d'informations उसके लिए प्रेम करना पड़ेगा, किसी के हृदय में उतरना पड़ेगा और एकनिष्ठ होना पड़ेगा। किनारे पर खड़े होकर नदी को या तालाब को भी पार नहीं किया जा सकता। आप सोचेंगे कि गुरू जी को भी देख लेते हैं, घर को भी देख लेते हैं और बाहर का काम भी देख लेते हैं, सब कुछ एक साथ कर लेते हैं यह एक निषlan एकनिष्ठता का अर्थ है कि एकचित होकर के तीर की तरह एक लक्ष्य पर अचूक हो जाना और जो तीर की तरह चलता है वह जीवन में सर्वोच्चता प्राप्त करता है और जो सर्वोच्चता प्राप्त करता है उसे संसार देखता है और जिसको संसार देखता है उसका जीवन धन्य होता है।
आपकी पीढि़यां जो स्वर्ग में बैठी होती हैं वे भी धन्य अनुभव .ve इनकी आवाज पर लाखों लोग नाचने लग जाते हैं, झूमने लग जाते हैं। उन्हें भी लगता है कि कुछ तो है इस बालक में में कुछ और उनको वह प्यारा अनुभव होता हैर व्यक्ति्ति पहले दिन से लगाकर अंतिम दिन और व्यक्ति्ति. Plus d'informations
इस उपनिषद में कहा गया है कि सब कुछ आप के हाथ में है आप कैसा जीवन जीना चाहते हैं हैंœuvre मुस्कुराहट के साथ में, चिंतन के साथ में, कार्यों में डूबते हुए और अपने्ष्य कीर बढ़ते हुये हुये।।. Plus d'informations वह आपके हाथ में है और यही आपके भाग्य का निर्माण करने वाला तथ्य होता है। जो श्लोक है उसकी व्याख्या जिसने लिखी है उस ऋषि ने की होगी और किसी ने नहीं की होगी होगी। Plus d'informations इसलिये मैं कहता हूं कि गीतो को कृष्ण के अलावा किसी ने समझा नहीं है। Plus d'informations Plus d'informations
Plus d'informations आपका भाग्य-दुर्भाग्य, आयु-पूर्णायु, अमरत्व और मृत्यु, पूर्णता और अपूर्णता सब कुछ आपके हाथ में है मगœuvre आप जीवन में एकनिष्ठ बने ऐसा ही मैं आपको आशीर्वाद देता हूं। श्वेताश्वेतरोपनिषद बहुत ही महत्वपूर्ण उपनिषद् है और इसका भiner इस उपनिषद में ऋषि ने अपने सारे ज्ञान को बiner जानते हुये भी अज्ञानता अपने अन्दर स्थापित करता facedre
ऋषि यह कहना चाहते है कि मैं समझा रहा हूँ शिष्यों को मगर शिष्य पiner जो चिंतन मैंने प्रस्तुत किया है वह दो मिनट या पांच मिनट रहेगा और वापस इसके ऊपर रेत जम जायेगी और यह्तन समाप्त. यह व्यक्ति का स्वभाव है और रहेगा। जो इस स्वभाव को धक्का मार कर आगे निकल जाता है वह अपने आप में ऊंचाई की ओर पहला कदम रखता है।।।।.
ऋषि ने पहली बात यह कही कि व्यक्ति जानते हुए भी अनजान बना रहता है क्योंकि अनजान बना रहना उसकी प्रवृत्ति है।। अनज. अनजान इसलिये बना रहता है कि वह सुरक्षित है, वह कहता है मुझे इसका ज्ञान नहीं क्योंकि इससे कोई लाभ नहीं।।. परन्तु ऐसा कहकर, वह अपने को छलावा देता है, दुनिया को मूर्ख नहीं बना faceह.
Plus d'informations Plus d'informations देश जैसा भी कोई शब्द नहीं है। क्योंकि देश या संसार या विश्व ये सब व्यक्तियों के समूह से बनते बनते हैं। ऐसा नहीं कह सकते कि यह देश है। एक नक्शा है वह देश तो हो ही नहीं सकता। देश के लिए आवश्यक है कि लोग हो। एक निश्चित भूभाग पर रहने वाले लोग देश के निवासी कहलाते हैं।। Plus d'informations भारत में कोई मनुष्य रहेगा ही नहीं तो भारतवर्ष होगा ही नहीं। इस श्वेताश्वेतरोपनिषद के रचनाकर ने हमें सिखा दिया कि हम जमीन पर पड़े रहकर आसमान में छेद कैसेर सकते हैं हैं।।।. जमीन पर खड़े होकर देवताओं के समान पूरे विश्व में कैसे वन्दनीय हो सकते हैं, जमीन पर पड़े रहकर कैसे अपने म.
उस ऋषि की वाणी को मैं आपके हृदय में उतार रहा हूं जिससे आपके हृदय का अंधकार दूर हो और यदि प्रकाश बिखेरा तो्रकाश बिखरेगा ही।।. मैं आपको ऐसा आशीर्वाद दे रहा हूं कि आप एक सामान्य व्यक्ति से आगे बढ़रके जिज्ञासु, जिज्ञासु से आगे बढ़ करके शिष्ञासु, जिज्ञासु से बढ़ करके शिष्य, शिष्य सेœuvre ऐसी स्थिति आपकी बने, मैं ऐसा ही आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
M. Kailash Shrimali
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