आवश्यक इसलिये क्योंकि हर नदी बहती है केवल और केवल सागर में विलीन होने के लिये और सागर मतभेद नहींरता, उसका विस्तार सभी के. परन्तु तट पर पहुँच कर वहाँ खड़े रहने से कुछ नहीं होगा, आगे बढ़कर संभाला होगा उसमें।
Plus d'informations निमंत्रण उसका हर क्षण बना रहता है और केवल एक क्षण की आवश्यकता होती है उसकी बाहों में समाने के लिये उसकी आत्मा से एकाहों में सम. उसकी ओर से कोई विलम्ब नहीं, वह कभी नहीं कहता, नहीं आज नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं -!
कहता भी है, तो पहल आपकी ओर से होती है। वह तो चाहता है आप उसी क्षण, उसी लम्हे में सब त्याग कर, स्वयं को भूला कर उसके बुद्धत्व्व से. परन्तु आप ठिठक जाते है। ऐसे खुले निमंतtenir यह खेल है सब कुछ खो देने का।
आप जिस भार के तले दबे जiner .
अपनी समझ-बूझ को एक तरफ रख दो, क्योंकि इस यात्र में यह बाधक ही है। जब तक इसका त्याग नहीं होगा, वह रुपान Joh
अन्दर तुम्हारे एक बीज है है, एक आत्मा है है - उसको जगाना है, उसको पुष्पित करना है, तभी जीवन का वास्तविक आनन्द स्पष्ट्ट. T समझाने से यह बात समझी नहीं जा सकती, पढ़ने से कुछ प्राप्त हो नहीं सकता है। हाँ इतना अवश्य हो सकता है, कि गुरु की वाणी से आप एक क्षण के लिये अपनी निद्रœuvrevi से जागृत हो जाये और जान लें कि गु__° ठीक कह हो जाये और ज. तो उस क्षण पूर्ण चैतन्य बने रहना। दोबारा सो मत जाना। वही क्षण महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें आप इस प्रक्रिया के प्रैक्टिकल में .ve यह विज्ञान है ही प्रैक्टिकल, मात्र पढ़ने से काम नहीं चलेगा। और सदगुरु तक आप पहुँच गये है, तो इस प्रक्रिया में उतरना और भी आसान है। करना बस इतना है, कि अपनी बुद्धि को एक तरफ रख छोड़े, उसे बीच में न लाये।
गुरु देने को तैयार है, एक क्षण में यह रुपान्तरण घटित हो सकत. Plus d'informations हाँ, पहले तो आपको तैयार होना पडे़गा। गुरु तो अपनी अनुकंपा हर वक्त संप्रेषित करते ही रहते हैं, उसे ग्रहण आपको करना है। गंगा तो विशुद्ध जल सदा प्रवाहित करती ही रहती है, तृष्णा शiner यह प्रैक्टिकल क्रिया है। बैठे-बैठे आप प्यास नहीं बुझा सकते और अगर यह सोंचे, कि झुकूंगा नहीं, तो प्यास बुझने वाली नहीं है।।
अगर शिष्य या फिर एक इच्छुक व्यक्ति प्रयास करने के बाद भी बुद्धि से मुक्त नहीं हो पाता, तो गुरु उस पर प्रहार करता है और यही गुरु का कर्त्तव्य भी है, कि उस पर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण प्रहार करे, तब तक जब तक कि उसके अहंकार का किला ढह न जाये। Plus d'informations जब यह बांध गिरेगा तभी प्रेम, चेतना और करुणा का प्रवाह होगiner -
कठोर कार्य सौंप कर, परीक्षा लेकर, साधना कराकर और जब ये सभी निष्फल होते दिखे तो विशेष दीक्षा देकर वह ऐसा कर सकतcre परन्तु पहले वह सभी पtenir
गुरु का भी धर्म है, कि विशेष दीक्षाओं के माध्यम से शिष्यों की्याओंाओं का समाधान करे और इसके लियेरु विशेष्षणों कान करे औरत. वह जानता है, कि बहार आने पर ही फूल खिलते है है, इसलिये ऐसे क्षणों को वह चुनता है, जो सैकडोंर्षो बाद आते और् ऐसी्च प्रक्èrecité दीक्षा का अर्थ है, गुरु की आत्मिक शक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित करना, अपना सर्वस्व गुरु के चरणों मेंा, अपनर्वस्व गुरु के चरणों में.
और जान लें, कि सद्गुरु का कोई निजी स्वार्थ होता नहीं, अगर स्वार्थ है तो वह गुरु नहीं। स. उसका उद्देश्य तो मात्र इतना है, कि व्यक्ति को उस परम स्वतंत्रता का बोध करा दे, जिसे पाकर कोई भी सांसारिक समस्या, दुःख, पीड़ा उसके मन पर आघात नहीं कर पाती और पूर्ण निश्चिन्त हो वह सदा बिना भय और संशय के उच्चता एवं सफलता की ओर अग्रसर होता रहता है-सांसारिक जीवन में भी और आध्यात्मिक जीवन में भी भी
Plus d'informations Plus d'informations सांसारिक जीवन में वह इतना डूब गया है, कि उसे स्मरण ही नहीं रहा कि आध्यात्मिक तलर भी__भी उसका अस्तित्व. उस पक्ष को सर्वथा उसने अनदेखा कर दिया, जिसके कारण संसार के दुःख एवं पीड़ा रूपी आघात उसे यों हिला कर रख देते है है जैसे आंधी में एक पत्ता। इसी असंतुलन के कारण आज संसार में इतना पाप, असन्तोष, आतंकवाद व्याप्त है।
सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में सन्तुलन दtenir दीक्षा कोई सामान्य क्रिया नहीं है, कि मंत्र दे दिया और तुम अपने घर, मैं अपनेर ।। गुरु तो जिम्मेदारी लेता है, पूरी जिम्मेदारी! प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक शिष्य की समसtenir
दीक्षा वह अनेकों प्रकार से दे सकता है- मंत्र के द्वारा, स्पर्श दtenir अनेकों लोग विशेषतः तथाकथित वैज्ञानिक संदेह प्रकट कर सकते हैं मंत्रों के सन्दर्भ में, परन्तु अगर वह पूर्ण गुरु है, तो सिद्ध कर देता है, कि वैदिक मंत्र प्रमाणिक ही नहीं, अपितु इतने शक्तिशाली हैं, कि क्षण में व्यक्ति का रुपान्तरण कर दे।
व्यक्ति तैयार हो, और तैयार का मतलब तन तन, मन, धन से एवं बिना हिचक के, बिना भय और सन्देह के के, तोरु को एक्षण नहीं लगतœuvre व्यक्ति के जन्मों की न्यूनताओं को नष्ट करना पडता है अपने तप द्वारा और न केवल उसकी न्यूनताओं अपितु उसके माता-पिता, उसके पूर्वजों की समस्त न्यूनताओं को समाप्त करना होता है, क्योंकि वे सब संस्कारो द्वारा, आनुवांशिक प्रक्रिया द्वारा उसमें विद्यमान होती हैं। उसके तन की, उसके मन की, उसके रक्त की शुद्धि करनी होती है गुरु को।
एक सामान्य व्यक्ति को यह सब कठिन प्रतीत हो सकता है, परन्तु गुरु के लिये नहीं।।। है. वह तो बस अपनी तप ऊर्जा को हर क्षण प्रवाहित करता रहता है और जो भी बुद्धि से मुक्त हो सके, इस चेतनर जो ग्रहण कर ुप्त .tien Plus d'informations सद्गुरु के शरीर से हर दम तप शक्ति संप्रेषित होती रहती है। यदि आप उसे ग्रहण कर लें, तो— ग्रहण आपको करना है, गुरु कोई मतभेद नहीं करता। उसके लिये सभी बराबर है। T
परन्तु स्वतः यह न हो पाये, तो गुरु विशेष तरीके अपनाता है और इसके लिये प्रयोग करता है मंत् enfinétique हाँ, इनका प्रयोग तभी गुरु करता है, जब शिष्य स्वयं ग्रहणशील नहीं हो पाता। बहुत से उदाहरण है, ऐसे, जब मात्र गुरु की समीपता से आत्मोपलब्धि हो गई! परन्तु ऐसा हुआ केवल उनके साथ जो अहंकार रहित थे, जो बुद्धि से पूर्ण चैतन्य, शिष्यता की ओर अग्रसœuvre एवं एक से से__ère उनके मन और बुद्धि के सभी द fraisé
ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे विदुर। श्रीकृष्ण के दर्शन मात्र से पूर्ण चेतना को प्राप्त हुये एवं एक Dieu बुद्ध के शिष्य थे आनन्द-तीस वर्ष तक बुद्ध उन पर प्रहार करते ही रहे, तब कहीं उनका अहंकार गला और वहीं एक शिष्य थे राहुलभद्र जो बुद्ध की शरण में पहुँचे नहीं, कि पूर्ण रुपेण कुण्डलिनी जाग्रत हो गई और वे बुद्धत्व को प्राप्त हो गये । होता है ऐसा! और इस प्रकtenir Plus d'informations अगर वह अहं को छोड़ नहीं पाता, तो यह संभव नहीं और तब गुरु विशेष दीक्षा का प्रयोग करते है।
Plus d'informations एक माँ कैसे भिन्न है अन्य मानवों से। Plus d'informations परन्तु उसमे ममत्व होता है, मातृत्व की भावना होती है, जो वह समग्रता से, पूर्णता से अपने शिशु में उडे़ल देती है है।।, पूर्णता से अपने शिशु में उडे़ल देती है है।। Plus d'informations, plus d'informations आपने देखा होगा, कि जब शिष्य झुकता है गुरु के चरणों में तो वह पीठ पर, सिर पर हाथ रखता है और मुख से्चरित करता हैर्वाद! क्यों हाथ रखता है? आपने शायद गौर नहीं किया। श compris
ध्यान दे तो सभी भावनाओं का संप्रेषण नेत्रों के माध्यम से होता है। घृणा करे तो नेत्रों से, क्रोध करें तो नेत्रों से और प्रेम करें तो भी्रों से ही. Plus d'informations मेरी आँखे आपको बता देगी, कि गुरुजी खुश हैं या नाराज हैं या क्रोधित हैं। मैं बोलूं अथवा नहीं बोलूं आप भांप लेंगे, क्योंकि आँख हमेशा सत्य ही बोलती हैं हैं। Plus d'informations Plus d'informations, plus d'informations
तो गुरु की आत्मिक तपस्या का अंश आँखों से प्रवाहित होता रहता है। Plus d'informations विशेष दीक्षा का अर्थ है शिष्य गुरु के सामने आये और गुरु एक सेकण्ड उसकी आँखों में ताके और शक्ति का एक तीव्र प्रवाह उसके नेत्रों के माध्यम से उसके शरीर में एक आलोड़न, एक प्रक्रिया को आरम्भ कर देगी, उसकी निद्रा को भंग कर देगी और उसे पूर्ण चेतन्य कर देगी।
इसके लिये आवश्यक नहीं कि गुरू पाँच मिनट तक आँखों में घूरता रहे। एक बार एक शिष्या मेरे पास आई और बोली-कमाल है गुजु ी! उस व्यक्ति की आँखों में तो आपने एक मिनट तक देखcre एक दो या दस मिनट दृष्टिपात से कोई ज्यादा तपस्या का अंश नहीं जायेगा। Plus d'informations एक सेकण्ड लगता है स्विच दबाने में और पूरी बिल्डिंग रोशनी से चकाचौंध हो जाती है। गुरु जानता है, कि मस्तिष्क में किस स्विच पर प्रहार करना है और इसके लिये उसे मात्र एक क्षणांश है आवश्यकता होती है और अगर बटन बटन ही गलत ही मिनट मिनट मिनट मिनट है है है है है है है है है है है गलत है है गलत गलत गलत है है है गलत गलत है. तो विशेष दीक्षा यानी गुरु ने एक पल आँखों में देखcre शिष्य यह याद रखे, कि आँख न झपकाये और पूर्ण क्षमता से तपस्यांश ग्रहण करे।
तब उस तपस्या शक्ति के प्रवाह से शिष्य की सुप्त दिव्य शक्तियाँ एकiner दीक्षा के भी अनेको चरण हो सकते है और प्रत्येक चरण में शिष्य नवीन शकtenir चैतन्यता का अर्थ है, कि व्यक्ति आत्मा से जुड़ गया है तथा आगे आध्यात्मिक उन्नति के लिये तैय. विशेष दीकtenir दीक्षा के कई क्रम हैराज्याभिषेक, पट्टाभिषेक, साम्राज्याभिषेक और इनके पश्चात तीन अन्य दीक्षाये. राज्याभिषेक दीक्षा का अर्थ है, व्यक्ति के अन्दर की सारी वृत्तियां जागृत हो और कुण्डलिनी का एकदम जागरण हो, विस्फोट हो और इस प्रकार आज्ञा चक्र जागरण द्वारा उन सब दृश्यों को व्यक्ति देख पाये, जो कि सामान्यतः सम्भव नहीं। वे दृश्य कहीं दूर किसी घटना के हो सकते है, पूर्व जन्म के हो सकते हैं, सिद्धाश्रम के हो सकते है य य. एक पtenir
दीक्षा के दूसरे क्रम में है ब्रहtenir फिर वह सन्यास में रहे या गृहस्थ में उस पर बाहरी वृत्तियों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे ही जैसे श्री कृष्ण थे, चाहे वे गोपियों के साथ थे या राक्षसों के बीच, वे निर्मल ही बने बने रहे औdui उनके ऊपर न युद्ध का कोई प्रभाव पड़ा, न दुर्योधन जैसे राक्षसों का, न ही वे किसी्ति में लीन हुये।।।. Plus d'informations
इस पtenir Plus d'informations Plus d'informations इन दीक्षाओं को गुरु तभी प्रदान करता है, जब व्यक्ति में समर्पण की भावना जाग्रत हो opér. जब व्यक्ति गुरु के पास जाता है और सिद्धाश्रम जाने की, आध्यात्म में पूœuvref. अगर आप समझे, कि मात्र सोच लेने से सिद्धाश्रम पहुँच जायेंगे, तो यह सम्भव नहीं है। Plus d'informations इस पtenir Plus d'informations
मात्र गुरु शब्द उच्चारित करने से शिष्य नहीं बना जा सकता और न ही अन्दर की वृत्तियों को जाग्रत किया जा सकतर की वृत्तियों को जाग्रत किया जा सकतर है।। को को.. वृत्तियों का अर्थ है-करुणा, दया, प्रेम, ममत्व, स्नेह, श्रेष्ठता और भावाभिव्यक्ति. Plus d'informations Plus d'informations, plus d'informations Plus d'informations गुरु से दूर रहकर इस प्रकार की प्रक्रिया सम्भव नहीं हो सकती। भावाभिव्यक्ति तब होती है, जब गुरु शिष्य का परस्पर एक गहनसम्बन्ध बनता है और सम्बन्ध्ध. आप निःस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा करते रहे, तो एक बीज बनता है, एक दूसरे के निकट आने की क्रिया बनती हैर पूरœuvref.
जब मैं सन्यास जीवन में था, तो बड़ी कठिनता के बाद इस प्रकार की दीक्षाये प्राप्त हुई थी थीर मैंœuvre गुरुसेवा, गुरुनिष Joh श्रीकृष्ण ने सांदीपन ऋषि से दीक्षा ग्रहण की तब ऋषि अनुभव कर रहे थे, कि यह तो्ण उन पर अनुकम्पा कर है यह उन्हें गुरु कर अनुकम्पा करहे है है उन्हें गुरु का सम्मान. कृष्ण को आवश्यकता नहीं थी, परन्तु एक औपचारिकता, एक सामाजिक कर्त्तव्य तो निभाना था ही।।।।।।।।।।।। सांदीपन जानते थे, कि इन्हें भला वे क्या प्रदान कर सकते है। Plus d'informations वे गुरु भी ऐसा अनुभव कर रहे थे, मन ही मन कह रहे थे- हम आपको राज्याभिषेक दीक्षा क्या दें दें कौन सी्टाभिषेक दीक्षा दें क्या दें ही सी. क्टाभिषेक दीक्षा दें दें्थिति ही जाने क्या बन बनष? आप हमें समझा सकते हैं, कि साम्राज Joh हम तो निमित्त मात्र है। आप शायद हमे सौभाग्य प्रदान कर रहे है और हमे गुरु शब्द से्मानित कर रहे है।। शब.
कई ऐसे गुरु मिले मुझे अपने परम पूज्य गुरुदेव भगवदपाद स्वामी सच्चिदानन्द के पास पहुँचने से पहले पहले। सच. परन्तु ये दीक्षाये मात्र समाजीकरण का एक अंग थी थी, मात्र एक औपचारिकता! वह तो मैं जानता था, वे भी जानते थे थे, कि पूर्व जन्म के संबंध थे, कभी उन्हें ज्ञान प्रदान किया था और - - स्ञ्राज्याभिषेक दीक्षा प्रvi म्भिक्भिक्ष्ष .asse Plus d'informations अपने आप में यह समtenir इसके बाद की पाँच दीक्षाओं में प्रत्येक दीक्षा उन गtenir
नर से नारायण बनने की यह प्रक्रिया केवल दीक्षाओं के माध्यम से सम्भव है, किसी भी शिक्ष. इन दीक्षाओं के लिये केवल इतना आवश्यक है, कि व्यक्ति गुरु चरणों एवं गुरु सेवा में रत रहे।
और पूर्ण भावाभिव्यक्ति की क्या पहचान है? यदि 'गुरु' शब्द का उच्चारण हो और एकदम से गला रुंध जiner से पहले उठे और बाद में सोये। एक आहट हो और चौकन्ना हो जाये। हल्का सा इशारा हो और समझ जाये, कि अब गुरु को क्या आवश्यकता है। इतनी तीव्र भावना हो।
Plus d'informations यह दीक्षा अन्दर की सभी वृत्तियों को और कुण्डलिनी को आज Joh इसके माध्यम से आज्ञा चक्र की सारी शक्तियाँ शनैः शनैः जाग्रत होती है और अंततः कुण्डलिनी आगे ज. सहस्त्रार सिर में एक ऐसा भाग है जहाँ एक हजार नाडि़याँ अपने आप में ऊर्ध्व यानि उल्टी होकर अमृताभिषेक करती है तथा जब सहस्त्रार जागृत हो जाता है, तो यह अमृत झरने लगता है और समस्त शरीर में फैल जाता है, जिसके कारण अद्भुत आभायुक्त एवं कान्तिवान हो जाता है।
आपने देखा होगा चित्रों में कि भगवान विष्णु लेटे हुये है और एक हजार फन वाला शेषनाग उन. Non छाया किये हुये है।।।. इसका अर्थ है, कि भगवान विष्णु का सहस्त्रार पूर्णतः जागृत है। ऐसा ही सहस्त्रार हर मनुष्य के सिर में स्थित है, उस स्थान पर जहाँ सिर में चोटी होती है है।।. Plus d'informations ऐसे व्यक्ति के शरीर से एक अद्वितीय सुगन्ध प्रवाहित होने लग लग जाती है। किसी में ग्राह्म शक्ति हो तो उसे एहसास हो जायेगा, हालांकि आम आदमी ऐसा नहीं कर पायेगा, प्nation
ऐसा व्यक्ति विदेह हो जाता है। संसार की को चिन्ता उसे नहीं रहती। वह एक ऐसे आनन्द को पtenir उसका जीवन काव्यात्मक हो जाता है, संगीतमय हो जाता है, सुगन्धमय हो जाता है। शक Joh आप कहेंगे मीठा है, तो मीठी तो बहुत चीजें होती हैं, परन्तु स्वाद कैसा है? Plus d'informations! Plus d'informations ठीक उसी प्रकार उस आनन्द की अनुभुति भी शब्दों में नहीं समझाई जा सकती। वह तुरीयावस Joh
Plus d'informations वह व्यक्ति किसी को सम्मोहित करने का प्रयत्न नहीं करता, उसका कोई भाव नहीं होता परन्तु उसका व्यक्तित्वlan ऐसा चैतन्य प्रवाह उसके शरीर से होता रहता है, कि लोग खींचे चले आते है।। गुरु और शिष्य में एक बहुत बड़ा गैप (दूरी) होती है है जब तक वह भर नहीं जाता शिष्य उस स्थिति को प्राप्त्त नहींœuvre है, कि अब यह व्यक्ति पूर्ण समर्पित है और तैयार है, तो वह उसके शरीर का, उसके मन कक.
इस शरीर की क्षमताये असीम और अद्भुत है यह शरीर पूरे ब्रह्माण्ड में विचface दूर-दूर की घटनाओं का एक स्थान पर बैठे-बैठे अवलोकन भी négation Plus d'informations एक स्थान में किसी कार्य में लीन रहते हुये वह अन्य किसी दूरस्थ स्थान की घटनाओं को देख सकत सकता है।.
ऐसा तब होता है, जब सहस्त्रारœuvre जाग्रत होता है, जब अमृताभिषेक होता है। अंतिम दीक्षा अमृताभिषेक होती है और तब व्यक्ति के शरीर से अष्टगन्ध प्रवाहित होने लगती है और सामान्य लोग बेशक अष्टगन्ध का पूर्ण एहसास न कर पायें, परन्तु कहीं न कहीं सूक्ष्म रूप से वह सुगन्ध उनको प्रभावित करती है और वे खींचे चले आते है और सद्गुरु प्राप्त करना भी बड़े सौभाग्य की बात है या तो भाग्य अच्छा हो या कई जन्मों के अच्छे संस्कार या सम्बन्धlan
Plus d'informations कृष्ण कौरवों के भी उतने ही समीप थे थे, जितने वे पाण्डवों के थे, परन्तु भावना दोनों पक्षों की भिन्न थी और इसीलिये्ण नेœuvre दिव्य दृष्टि है आपके पास, तो आप देख सकते है है, कि सूक्ष्म रुप में कैसे्धाश्रम के योगी आकर मेरे समीप बैठ जातेाश्रम के योगी.
वे मुझे छोड़ना नहीं, किसी भी हालत में और मुझे भी उनसे स्नेह है, उन्हें छोड़ नहीं सकता। गुरु शिष्य को नहीं छोड़ सकता। मेरे मना करते-करते वे आते ही है। जब दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, तो जैसे मैं देख सकता हूँ आप भी उनको देख सकते है और विराट स्वरुप को दिखाने के लिये चर्म-चक्षुओं के अलावा अन्य सूक्ष्म दृष्टि देने की आवश्यक है और यही प्रक्रिया है राज्याभिषेक आदि दीक्षाओं की-पहले ज्ञान दृष्टि जागृत होती है फिर आत्म दृष्टि, उसके बाद दिव्य दृष्टि जिसके माध्यम से बैठे बैठे-ब्रह्माण्ड्ड.
Plus d'informations Plus d'informations Plus d'informations आप जो पहचानते है, वह एक नर है और अगर उस नारायण स्वरुप को सिद्धाश्रम के योगी देख सकते है है, तो आप भी देख सकते है है। योगी देख सकते है है तो भी देख सकते है है। ऐसे दीक्षाये देना गुरु के लिये परम आवश्यक है ताकि यह ज्ञान, यह्य धरोहर लुप्त न हो हो जाये। अमूल्य धरोहर लुप्त न हो ज. आने वाली पीढि़यों के पास न तो ये मंत्र होंगे, न यह ज्ञान होगा, न दीक्षा देने की्रक्रिया होगी। सब समाप्त हो जायेगा और निश्चय ही मेरे साथ सब समाप्त हो जायेगा। Plus d'informations, plus d'informations लोगों ने तो क्या पण्डितों ने भी सुने ही नहीं होंगे और मुझे बड़ा तनाव, बड़ी चिन्ता होती है कि क्या होगा? किस प्रकार से होगा?
कैसे यह ज्ञान बना रहे ? समझ नहीं आता है। परन्तु विधाता अवश्य ऐसे शिष्य देंगे जो इस ज्ञान को आत्मसात कर सकेंगे। आत्मसात करने के लिये आपको भगवे कपड़े पहनने की जरुरत नहीं। इसका आधार तो सेवा है और अपने आप में पूर्ण रुप से समाहित होने की क्रिया है। आपकी कोई इच्छा, स्वार्थ नहीं हो। सेवा के बाद यह भावना न आये कि मैं कुछ कर रहा हूँ, 'अहं' बीच में आते ही सब परिश्रम व्यर्थ हो जœuvre भावना हो, कि गुरु करा रहा है और मेरे माध्यम से करा रहा है, यहरे लिये सौभाग्य की बात है।। मे. वे गुरु कह रहे थे- '' हमारा बड़ा सौभाग्य है, कि हम निमित्त बने आपको दीक्षा देने में में। शायद न जाने कितने हमारे जन्मों के पुण्य होंगे, कितना अधिक पुण्य किया होगा, कि हम्त भी बने बने। हजार दो हजार साल तपस्या प्राप्त करने पर भी शायद ही आपका सान्निध्य प्राप्त. Plus d'informations ब्रह्माण्ड के, काल के पटल पर यह घटना तो अंकित हो ही गई गई, कि हम बैठे है और दीक्षा क्रम बन रहा है। ''
अतः सद्गुरू निखिलेश्वरानन्द जी के अवतरण पर्व जो कि सूर्यग्रहण व्षय धनदा तृतीयiner ऐसी उच्च दीक्षा आप सदगुरु से प्राप्त कर पाये, ऐसा मेरा आशीर्वाद है-
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