सुख क्या है? और दुःख क्या है? ऊपर से देखने पर लगता है, दोनों बड़े विपरीत है, एक-दूसरे के बिलकुल दुश्मन हैं। ऐसा है नहीं। सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू है। सुख-दुख के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि वे विपरीत नहीं है, वे एक दूसरे में रूपांतरित होते रहते है, लहर कीरे है हैœuvre हम सब जानते है, हमने अपने सुखों को दुःख में परिवर्तित होते देखा है। जितना बड़ा सुख अपेक्षा में होगा, जब रूपांतरण होगा, उतना ही बड़ा दुःख होगा। सुख की अपेक्षा को ही कम करो ताकि जब परिवर्तन हो तो बहुत दुःख फलित फलित न हो।।
जब सुख दुःख में बदल जाता है तो कौन सी अड़चन है कि दुःख सुख में बदल बदल जाये! और हमने दुःख को भी सुख में बदल कर देखा। अगर आप दुःख में रहने को राजी हो जायें, तो दुख सुख में बदलने को तैय तैयार हो जाता है। अगर आप सुख में रहने को राजी हो जाये तो सुख दुःख में बदलने को तैय तैयार हो जाता है। जो दुःख को सुख में बदल लेता है, उसका सुख कैसे दुःख बन बन सकेगा? असल में जो दुःख को सुख में बदल लेता है, वह सुख की आकांक्षा ही छोड़ देत. Plus d'informations
जो रूचिकर वस्तु की इच्छा है, वही सुख है और जो अरूचिकर वस्तु की कल्पना है, वही दुःख है है। किसी वस्तु को रूचिकर कल्पित करना सुख है और किसी वस्तु को अरूचिकर कल्पित करना दुःख है है। इंद्रियों के लिये जो अनुकूल है, वह रूचिकर है और इंद्रियों के लिये जो अनुकूल नहीं है वह अरूचिकर है। इन इंद्रियों को जो प्रीतिकरीतिकर मालूम होता है वह वही है जो इन इंद्रियों को शांत करता है, अप्रीतिकर वही मालूम पड़तांत करता हैnce को्रीतिकर वही मालूम पड़ता है जो जो इंद्रियों को अशांत करत.
अगर आप इंद्रियों को अरूचिकर का भी भोजन दिये चले जायें तो थोड़े दिन में राजी हो ज. अगर आप रूचिकर का भोजन दिये चले जायें तो रूचिकर बार-बार लेने से धीरे-धीरे इंद्रिय का स्वाद मर जाता है इंद्रिय का स्वाद मर जाता है है इंद्रोज देने से उसकीœuvre रूचिकर सदा रूचिकर नहीं रहता। इसके और भी कारण हैं, क्योंकि आप पूरे समय विकसित हो रहे हैं।
जो आज हमारी इंद्रियों को इस क्षण में सुखद मालूम पड़ता है, अनुकूल मालूम पड़ता है, उसे हम कहते हैं 'सुख', जो आज इस्षण में इसके विपरीत पड़तcre सुख को हम चाहते हैं, दुःख को हम नहीं चाहते, सुख हमे मिल जाये पूरा और दुःख हमे बिलकुल न मिले, यह हमारी आकांक्षा रहती है। यह आकांक्षा ही शरीर से बंधने का कारण बन जiner इसलिये चेतना शरीर के साथ सम्मिश्रित होकर बंध जाती है और जब तक कोई सुख दुःख दोनों को ठीक सेर समझकर पार न हो तब तक शरीर के पर नहीं हो सकत.
सुख की आकांक Joh सुख को जो मांगेगा, दुःख से जो बचेगा, वह शरीर से बंधा रहेगा। सुख की जो मांग नहीं करेगा, दुःख मिल जाये तो राजी हो जायेगा, वह व्यक्ति शरीर से छूटने लगेग लगेगा। सुख की अपेक्ष l'eau भोग और तप का यही भेद है।
सुख-दुःख के लिये जो क्रियायें व्यक्ति करता है, उसे ही कर्ता कहते हैं। जो सुख-दुख के लिये क्रियाये करता है- जो मांगता है कि सुख मुझे मिले और दुःख मुझे न मिले, यह कर्ता है, लेकिन जो कहत. दोनों में भेद ही नहीं करता, यह अकर्ता हो जाता है और जब व्यकtenir इसी से भाग्य की किमती धारणा पैदा हुई। जो सुख-दुःख के बीच चुनाव करता है, वह कभी संतोष को उपलब्ध नहीं हो सकता, जो सुख-दुःख में करता है वह कभी संतोष नहीं पा सकता। Plus d'informations
जिससे दुःख मिलता है उसे हम दूर करना चाहते हैं, जिससे सुख मिलता है उसे हम पास करना चाहते हैं। जब भी हमें सुख मिलता है तो हम समझते हैं वह हमारे शरीर से मिल रहा है और जब दुख मिलता है, हम समझते हैं, वह दूसरे के शरीर से मिल ह हcre है। दूस. हमारी सदा की तरकीब यह है कि जो प्रीतिकर है, जो सुखद है उसे अपने से जोड़ लेते हैं हैं, जो अप्रीतिकर है, दुखद है, उसे औ. Non से जोड़ देते. सिर्फ हमारा ही धर्म एकमात्र धर्म है पृथ्वी पर, जिसने अपने परमात्मा में दोनों को खने खने की्मत की है।।.
इसीलिए हमारा धर्म जितने गहरा जा चुका हैं जीवन के सत्य को समझने में, उतना कोई भी नहीं जा सका। जैसे हमने 'महादेव' कहा है, 'शिव' कहा है, उसे दोनों एक साथ कहा है, जो बनाने वाला भी और मिटाने वाला भी वही। वही विष भी, अमृत भी। Plus d'informations लेकिन जगत दोनों का जोड़ है। या तो दोनों को इनकार कर दो या दोनों को स्वीकार कर लो- दोनों हालातों में दोनों से्ति हो जाती है।। में दोनों से. इस शरीर के साथ हमारा बंधन इसलिये निर्मित हो जाता है कि हम कहते हैं, सुख इससे मिलता है, दुःख कोई दूसरे देते हैं।। इससे इससे. सुख इससे मिलता है, इसलिये दूसरों से बचो बचो, या दूसरों को बदलते जाओ, या जब तक दूसरे सुख देते मालूम पड़ते हैं तब तक उनके साथ रहो, जब दुःख देते म.
हम उससे अपने को जोड़ना चाहते हैं, जिससे हमें लगता है, सुख मिल रहा है, उससे हम अपने को एक मानने लगते हैं, जिससे दुःख मिल हcre है, उससे हम अपने को तोड़न. और चूंकि हम अपने शरीर को समझते हैं कि इससे सुख मिल रहा है, हम शरीर के साथ बंध जाते हैं।
Plus d'informations उसका कारागृह आंतरिक है, उसके ही हाथों निर्मित, उसके अपने ही भीतर है। ऐसा लगता है कि हम बाहर जीते हैं, ऐसा लगता है कि बाहर सुख है, दुःख है, ऐसा लगता है, बाहर उपलब्धि है, पराजय है, जीत है सफलता-असफलता है, लेकिन बस लगता है, है सब भीतर ही। दौड़ भी भीतर है, पहुँचना भी भीतर है, पराजित हो जाना भी भीतर है, जिस को को हम बाहर देखते हैं हैं, वह भी opér
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