जब से यह सब सोचना विचारना प्रारम्भ किया है, तभी से 'ध्यान' की उत्पत्ति हुई है हैlan ध्यान एक रास है, महारास है, महानृत्य जीवन की एक उमंग उमंग, जीवन का उल्लास, जीवन का सौभाग्य और सही अर्थों में कहcre क्योंकि मनुष्य केवल जन्म लेकर श्मशान तक की यात्र कर अपने-को को समाप्त कर लेता है— एक पर्दा गिर जाता हैर और दूस__èrecre कोई चेतना नहीं रह जाती।
जिस क्षण हम जन्म लेते हैं, उसी क्षण से सिर्फ एक ही जीवन हम हमारे सामने होता है। यह प्रभु की कृपा है कि उसने वर्तमान जीवन और पिछले जीवन के बीच में एक पर्दा डाल दिया है, जिसमें कि उस जीवन कर्दा डाल दियर्द इस जीवन में नहीं जीवन सकेंरनtience इस जीवन का मर्म, चेतना क्या है? इसको समझने के लिए कोई शास्त्र, वेद, उपनिषद्, पुराण नहीं बनiner है— यह तो आन्तरिक उल्लास है।
मन के अन्दर उतर कर जिस चेतना को स्पर्श किया जiner का कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है।
पtenir इस रश्मियों के आदान-प्रदान से सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, प्रेम-घृणा, यश-अपयश सब की उत्पत्ति होती है।।।. मैं किसी से पtenir इसका मन से कोई सम्बनtenir यह वैसा ही है जैसे किसी तालाब के ऊपरी तल पर हम लहरें देख रहें हों। वास्तविकता जानने के लिए जब तक उस सरोवर की गहराई में कूदेंगे नहीं, उसके अन्दर प्रवेश नहीं .ve समुद्र के गर्भ में जो मोती हैं हैं, उनको भी नहीं परख सकेंगे— और मानव जीवन रूपी समुद्र में मोतियों कीरख करने के लिएरीर के अन्दर पहुँचना आवश्यक है शरीरीर के्दर उतœuvre
और जब तक हम शरीर के अन्दर उतर नहीं सकते, जब तक हमें शरीर के अन्दर का ज्ञान नहीं है है, तब तक हम हमर क्यु के बीचœuvre है, कभी उदास हो जाते हैं— कभी चिन्तित हो जाते हैं, कभी उल्लासित हो जाते हैं— कभी कुछ नोट बटोर लेते हैं कभी किसी से प्रेम कर लेते बटोर लेते. , et plus encore
जब सब कुछ समाप्त हो जाना है, तब एकत्र किसलिये करेकरे यह एकत्र करने की क्रिया क्यों है? क्यों एकत्र किया जाता है? सही अर्थो में मानव भ्रम में है, एक भूल-भूलैया में है, क्योंकि मानव वह सब कुछ एकत्र कर रहा है्बन्बन्ध्ध्ध्ध्ध. वह जो धन, पुत्र, पत्नी, बन्धु-बांधव एकत्र कर रहा है उसकी उसे जरूरत नहीं है क्योंकि यह सब उसके साथ नहींरत. ऐसा करके वह जो असल में चीज प्राप्त करने की आवश्यकता है- उसे खो बैठता है और जो नहीं एकत्र करने की्यकता है उसेर एकत्र करते करने की. व्यर्थ के कचरे को एकत्र कर रहा है— असल मोतियों को छोड़ रहा है और असल मोतियों की पहचान अन्दर उतारने की्रियœuvre '' आज मैं 'ध्यान' की उन गोपनीय विधियों को को, उन गोपनीय रहस्यों को ही स्पष्ट कर °laire , मनुष्य कहलाता है। '' मनुष्य को शब्द से जोड़ा गया 'मन' है मन शब्द से्य कीा 'मन है है मन्द से्द मनुष्य. कहना चाहिये और मनुष्य कहते हैं तो हमको मन को पहचानना आवश्यक है।
जब तक हम मन को नहीं पहचानेंगे तब तक हम मनुष्य कहलाने के काबिल नहीं है जैसे जैसे किसी को ग. धारणा को नहीं समझेंगे, चिन्तन नहीं करेंगे तो पशु में और हममें कोई अन्तर रह ही नहीं सकत.
मनुष्य तब मनुष्य बनता है, जब मन से किसी को पकड़ने में सक्षम हो जाता है। इसीलिये इसके पूर्व हम जो कुछ कार्य करते हैं, वह ऊपरी हिसाब से करते हैं और कहते हैं यह कि- 'मैं से कर ा हूं।' प्रेमी यह कह रहा है- 'मन से प्यार कर रहा हूं।' किसी से प्यार करते समय वह कहता है- 'मन से तुम्हें चाहता हूं।' मगर ये शब्दों का खिलवाड़ है— क्योंकि मन तो उसके नियन्त्रण में है ही नहीं नहीं पहच मन मन उस को समझ. के माध्यम से तुम्हें प्यार करता हूं या स्मरण के माध्यम से तुम तक पहुंचना चाहता हूं- इस मन से मैं कुछ कुछ कर ा हूं! Plus que jamais ! Plus d'informations
इस बात को समझने के लिए उन प्रश्नों का सहारा लेकर चलें, प्रश्नों के माध्यम से्तर दें जिससे कि यह विषय सरलतम. यह इतना जटिल विषय है कि इसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता— हवा को बांधा नहीं जा सकता— तूफान को बांधा नहीं जा सकता— 'ध्यान' जैसे शब्द. ध्यान अपने-आप में विस्तृत फलक है— पूरे आकाश को बांहों में नहीं .ve फिर भी इसे एक चिन्तन की गहराई के माध्यम से, एक विचार की आवश्यकता के माध्यम से इसे समझना सम्भव हो सकता है।।।।।.
इसीलिये मैंने कहा कि प्रश्नों के माध्यम से उत्तरों के माध्यम से से इस विषय को स्पष्ट करने क्रयत्न क__° क. शरीर और शरीर के नीचे भी एक ऐसी अवस्थिति है, एक ऐसी चेतना है, जिसको 'मन' कहा जाता है, उस मन को पकड़ने के लिए शरीर को छोड़ना होगा, इससे परे हटना होगरीर को छोड़ना होगा, इससे परे हटना होगा।. जब हम अपने शरीर के लिए व्यर्थ का चिन्तन नहीं करेंगे - शरीर को सब कुछ नहीं मानेंगे— और शरीर से परे हट कर देखने कœuvre Tout ce que vous voulez
अपने अन्दर उतर कर, अपने जीवन को समझने के लिए लिए शरीर की सीढ़ी बनाकर, जब पूरी तरह ऐसा समझें कि सब कुछ समाप्त हो गयœuvre बान्धव, पुत्र, मiner जब व्यक्ति में द्रषtenir जब ऐसी स्थिति में पांव रखेंगे, जब हम ऐसी स्थिति में आयेंगे, जब हम तटस्थ बनने की क्रिया का प्रारम्भ करेंगे, तब्रियान 'प्रारम्भ करेंगे, तब्रviभ.
ध्यान, कोई वस्तु नहीं है जो बाहर से अन्दर आरोपित की जा सके। ज्ञान के माध्यम से, पुराणों के माध्यम से, वेद मंत्रें के माध्यम से्यान हीं कियtat जा सकताध्यम ध्यान. ध्यान तो अनtenir की। सीढि़यां बनानी पड़ती हैं- विदेह बनने की, जहां न हर्ष होता है, न विषाद होता है। सीढि़यां बनानी पड़ती हैं- मन की और उस मन के पास पहुंचने पर जो बिम्ब दिखाई देता है, जो चेतना जाग्रत करता है, जो विचार पैदा होताग्रत करता है है जो विचœuvre
'ध्य' इति 'न' स 'ध्यान' - बाहर का कुछ भी ध्यान न हो, बहार कुछ भी हो हcre हो हो समभœuvre
Plus d'informations आंख बंद कर लेने से ध्यान नहीं होता। हिमालय में जाकर बैठने से, समाधि लगाने से ध्यान नहीं होता। पातंजलि के योग दर्शन को पढ़कर, समझकर और सीखकर भी ध्यान को नहीं सीखा जiner जो अन्दर उतरने की क्रिया को जान लेता है, जो मन के परे पहुँच जाता है, उसे्यान कहते हैं।।।. जहां ध्यान है, वहां और कोई चीज नहीं रह सकती, या तो ध्यान रह सकता है या बाहर की कोई चीज ही रह सकती है है। जब ध्यान रहेगा तो फिर पत्नी, पति, पुत्र, बन्धु-बांधव, कुछ नहीं रहेगा, दूसरे अर्थो में वह खुद भी अपने आप में नहीं नहीं °mine Plus d'informations Est-ce que vous avez besoin d'aide ?
हमारे यहां मूलतः शब्द हैं- एक निराकार, एक साकार— किसी ने राम को— किसी ने्ण को— किसी ने ईसा को— किसी ने अन्य किसी को म— किसी ईस. उनके सामने एक बिम्ब है, एक मूर्ति है, धनुष लिए हुए राम हैं, मुरली बजाते हुए कृष्ण हैं, सूली पर टंगे हुए ईसा हैं इस प्रकœuvre कुछ ऐसे चिन्तक हुए हैं, जिन्होंने सगुण और साकार की स्थिति से अपने चिन्तन को हट हटा दिया है। वे बिल्कुल एक अलग स्थिति में खड़े हैं हैं, 'कबीर' ऐसी पंक्ति में अग्रणी हैं, तो हैं हैं (ब्रह्म का कोई्वरूप नहीं हैं हैं ब्म्म हैा कोई स्वरूप नहीं है है अजन्माहै. देखने में गई, मैं भी हाक गई लाल। उसमें कtenir प्रातः काल होने पर दसों दिशाओं में लाली भर जाती है, उस समय कोई धनुष लिये हुए व्यक्तित्व नहीं होत. में अपने-आप को अवस्थित देखता है तो तो, वैसा ही अनुभव करता है, वैसी लाली जो दसो दिशाओं में होती है है। जहां किसी प्रकार की मूर्ति नहीं है, किसी प्रकार का चित्र नहीं है, और किसी्रकार का बिम्ब नहीं है- वह 'निराकार' है का कोई आकार हैं हैं निराकार 'है जिसका कोई आकार हैं हैं हैं निराकार' है जिसका कोई आकार हैं हैं हैं निराकार 'है जिसका कोई आकार हैं हैं हैं निराकार' है जिसका कोई आकार हैं हैं हैं निराकार 'है जिसका कोई आकार हैं हैं हैं निराकार' है, जिसका कोई आकार नहीं हैं हैं नि__°.
ध्यान के लिए न निराकार की आवश्यकता है, न साकार की आवश्यकता है— जहां आकार है ही नहीं वहीं्यान है।।।।. आकार तो हमने बनérimp हमने कृष्ण को देखा नहीं है है, श्रीमद्भागवत में जो पढ़ा है, उसको एक आकार बनाकर 'कृष्ण' का नाम दे दिया- आकार के मœuvre ज ब नव शिष्य होता है, जब नया-नया बच्चा लिखना सीखने के लिए बैठता है, उसको स्लेट पर 'क' लिख देंगे देंगेर वह__vi बच्च. दिनों के अभ्यास के बiner
मनुष्य की भी ऐसी ही स्थिति है जब वह ध्यान की ओर प्रवृत्त होता है तो तो तो उसे एक आक__vi. उसके आँखों में 'कृष्ण' बस जiner उसके आँखे बंद होती है, तब भी अभ्यास वश वह बिम्ब ही उसके आँखों के सामने आ जाता है— और लोग मान लेते हैं मैंने मैंने आँख बंद की की— और इष्ट मेœuvre T दिखाई देता है।
यह तो ठीक ऐसी बात हुई- जब कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से बiner करके देखता है तो प्रेमिका का बिम्ब उसकी आंखों के सामने साकार हो जाता है— प्रेमिका का बिम्ब स्पष्ट होने से सेœuvre । बिम्ब प्रेमी नहीं बन सकता- वह तो एक दृश्य है जिसे हम खुली आंखों से देख हे हे थे य.
और यही स्थिति निराकार की है जो साकार को नहीं मानते वे यही कहते हैं कि एक ज्योति है एक एक दीपक की लौ है एक लाली है négation तो चारों ओर लाली सी दिखाई देती है- वह उसी को ध्यान समझ बैठता है— जबकि सही अर्थों में न वह वह पहले वाला ध्यान है न न ध्यान. ध्यान न सगुण का किया जा सकता है, न निर्गुण का किया जा सकता है। इन दोनों से परे हट कर जो अवस्थिति है, उस अवस्थिति में पहुँचने की जो क्रिया है- वह ध्यान है।। जो. ध्यान तो बहुत आगे की स्थिति है, इसीलिये यह आवश्यक नहीं कि आपके सामने कोई बिम्ब हो या यह कोई Dieu Plus d'informations बस आप मनुष्य हैं, अतः अपने अन्दर उतर कर, सुदूर गहराइयों में पहुँच सकते हैं— और प्रत्येक मनुष्य पहुँच सकता है यदि वह्धिf. साकार और निराकार में भेद करती है, ये साकार है— ये निराकार है— और जहां बुद्धि है वहां साकर और निराकार दोनों है। छल-झूठ, ढोंग और पाखण्ड भय है। इसीलिये ध्यान न साकार का किया जा सकता है, न निराकार का किया जा सकता है।
Question: ध्यान का वास्तविक तात्पर्य क्या है और उसे किस प्रकार किया जा सकता है? ध्यान का वास्तविक तात्पर्य जब हम अपनी बुद्धि, अपने चित्त, संदेह, भ्रम, राग, द्वेष इन सबसे परे हट कर अन्दर की क्रिया का प्रारम्भ करते हैं- शांत चित्त से, जहां लहरें न उठती हों, जहां किसी प्रकार से तरंगे विवृत्त न होती हों, जहां निरन्तर अन्दर उतरने की क्रिया होती रहती है, तब उस स्थिति में पहुँचने क्रिया को ध्यान.
जहां ऊपरी भाव समाप्त हो जाता है, वहां एक नया आलोक पैदा होता है। जब हम एक छोटे कमरे से आगे बढ़ते हैं तो तो, आगे उससे बड़ा तेज ोशनी युक्त, एक दूसरा हॉल मिलता है, जब हम उससे आगे बढ़ते हैं तो, तीसरा और— निरन्तर गहरеcurité स्तम्भ की स्थिति तक— निरन्तर पहुंचते रहते हैं और जब हम अन्तिम बिन्दु पर पहुंच जाते हैं, जहां बाह्य सब कुछ्य होœuvre
मनुष्य की सात अवस्थायें होती हैं, जिसको कहा गया है- 1- वैखरी, 2- मध्यमा, 3- पश्यन्ती, 4- अतल अतल, 5- प्राण, 6- निर्बीज, 7-मनस इन सस स्र प्ररoccuतnce कक जिस जिस स स. पर पहुंचते हैं, उसे 'ध्यान' कहते हैं। प्रथम अवस्था 'वैखरी' का तात्पर्य है- हम अपने देह म म म म म म वैखरी का तात्पर्य है- मैं जो कुछ कर रहा हूं, मुझे ज्ञात है कि मैं क्या कर रहा हूं— कहां आ ह हा हूं? - क कौन हूं हूं? मैं जो कुछ कर रहा हूं वह ठीक कर रहा हूं या गलत कर रहा हूं? - इस बात कiner
यह अवस्था पशुओं में नहीं होती है, यह मनुष्यों में होती है। Plus d'informations T के अन्दर उतर कर, अपने आप को भुला देने की जो स्थिति होती है है उससे अपूर्व आनन्ददायक तृप्ति प्राप्त होती है'-इतन्ददायक लेत्ति प्राप्त. हट कर, अन्दर उतरने के लिए अपना पांव बढ़ाया है, एक कदम आगे बढ़ाया है।
उसने यह अहसास किया है कि- बाहरी दुनिया, बाहरी सुख-दुख— इन सबसे अलग हटकर स्वयं के अन्दर जो अपने-आप एक अपूर्व आनन्दद. इस स्थिति का भान होना, अनुमान होना कि मुझे उस अवस्था तक पहुँचना है जो्यता की श्रेष्ठतम स्थिति है। मनुष्यता की्रेष्ठतम स्थिति है।।।।. जिस समय ऐसे विचार मन में उठेंगे उठेंगे, तब उसे वैखरी अवस्था कहा जाता है, क्योंकि उस समय वह वह अपनी देह की अवस्था से परे हट कर, अन्दर की अवस्था में की क्रियœuvre
मैंने तुम्हे बताया कि, शरीर से निरन्तर विद्युत तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं, उनसे जब दूसरे शरीर की तरंगें स्पर्श होती है, तब उस दूसरे शरीर की तंरगों के स्पर्श से हम मालूम कर लेते हैं कि सामने वाला क्रोध कर रहा है या घृणा कर रहा T
ये बाहरी शरीर की तरंगें हैं, ये बाहरी चीजों का अदान-प्रदान है। T से आनन्द की उपलब्धि संभव हैं— क्योंकि बाह्य रूप से तो उसने सब कुछ करके देख लियानी, उसनेान बनाया, घर बसायायानी. प्रेमी बदले— तिजोरियां भरीं, बैंक बैलेन्स बनाया— उसके बावजूद उसे जो कुछ Dieu , et plus encore
Plus d'informations जो आज है, वह कल नहीं हैं। आज धन है, कल धन बचा नहीं रह सकता। Plus d'informations धन के माध्यम से निश्चिंतता प्राप्त नहीं की जा सकती— भागते हने की प्रक्रिया से कुछ प्राप्त नहीं कियारक्रिया से कुछ. कोई अलग चीज है, जिसके माध्यम से आनन्द की अनुभूति हो सकती है— और जब वे विचार उसके मानस में लहरें लेने लगते हैं हैं आती आती है हैœuvre है कि आनन्द क्या चीज है? आनन्द कैसे प्राप्त होना है? इसे कहां से प्राप्त किया जा सकता है? मगर एक धारणा बन गई है, मजबूती आ गई, यह चिन्तन बना कि- जरूर कोई चीज है जिसके मर सकत्यम से मैं आनन्द को्राप्त कर सकता हूँ इस इस मजबूती को मध्यमcre अवस्थ का कहcre
तीसरी अवस्था 'पश्यन्ती अवस्था' है। Plus d'informations हम देख रहें हैं, मगर हम एक दूसरी आंख से देख रहें हैं, एक दूसरे तरीके से देख रहें हैं, भाव बदल गया है। हमारी धारणा और चिन्तन बदल गया है। ठीक ऐसा ही देखने का भाव हुआ, जैसे- टिकट लेकर हम सिनेमा हॉल में बैठें हैं।
सामने पर्दे पर किसी का पुत्र मर गया है— मन में कोई भाव नहीं उठ रहा है, दुःख नहीं हो रहा है।।।।।।।।।।।। कोई लड़की बहुत सुन्दर नाच रही है। मन में कोई बहुत बड़ा विकार या विचार उत्पन्न नहीं हो रहा है। बस केवल देख रहा है— देखते-देखते तीन घंटे बीत जाते हैं, और वह कुर्त्ता झटक कर बाहर आ जाता है।।।. Plus d'informations उसमें इनवॉल्व नहीं हो रहा है। वह उस पर्दे पर जो कुछ दृश्य है, उससे अपनी तादात्यमता नहीं जोड़ रहा है। T है, रूपये चले गये तब भी तटस्थ रूप से देखता रहता है Plus d'informations Plus d'informations उसकी कोई प्रशंसा करता है, तब भी वह तटस्थ रहता है और यह तटस्थ रहने की क्रिया, उसके जीवन में उतर जाती है तो की वह्रिया, उसके जीवन में उतर ज्तीférive तब केवल द्रषtenir न हर्ष होता है, न विषाद होता है— मन में किसी प्रकार की कोई चिन्ता होती ही नहीं। Plus d'informations अपने-आपको उसमें लिप्त नहीं करता, अपने-आपको उसमें जोड़ता नहीं। Plus d'informations
समाज में चल रहा है, घर में रह रहा है। उसकी पत्नी भी है, पुत्र भी है, बन्धु-बांधव भी हैं, सामाजिक कार्य है, व्यापार भी करता है, नौकरी करता है, भगवान का भजन करता है, हरिद्वार में स्नान करता है, मगर ये सब एक द्रष्टा भाव से करता है, उसमें लिप्त नहीं हो रहा है और जब ऐसा भाव स्पष्ट हो जाता है है उसकी अवस्था को पश्यन्ती्ती अवस्था कहा गया है. अपने-आप से अलग हट कर देखने की जो क्रिया है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण अवस्था है वह ध्यान कीर्ण अवस्था है कदम ध्यान कीर. विषाद पैदा होता है। वह एक उन्मनी अवस्था में आने की क्रिया प्रारम्भ कर लेता है, उसके देखने का भाव बदल जाता है।। देखने क. किसी स्त्री को देखकर उसके मन में विषय-वासना पैदा नहीं होती। Plus d'informations
चौथी अवस्था 'अतल अवस्था' है। अतल-जिसका कोई ओर-छोर नहीं है, वह इस संसार में होते हुए भी इस संसार का नहीं होता। उसका परिवेश, उसका वातावरण, उसका जीवन पूरे ब्रह्माण्ड में फैल जाता है— पूरा ब्रह्माण्ड उसकाताक्षीभूत बन जरा ब्रह्माण्ड उसका साक्षीभूत. वह मन्दिर में भी उसी भाव से जiner
Plus d'informations Plus d'informations Plus d'informations ओर-छोर नहीं है, जहाँ न हिन्दू है, न ईसाई है— जहां क िसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं है। यदि कोई गालिंया देता है, उसके मुंह पर थूक देता है तो, उसके चेहरे पर क्रोध का भाव पैदा नहीं होता। Plus d'informations ई विशेष भाव पैदा नहीं होता।
Plus tard, plus tard Plus d'informations ऐसा व्यक्ति जीवन के सारे क्रिया-कलाप उसी ढंग से करता है, जिस से से समाज का दूसरा व्यक्ति करता है।। क. वह व्यापार भी करता है, नौकरी भी करता है, पत्नी के साथ भी रहता है— वह पति के साथ भी रहती है, मगर उसमें किसी प्रकार की हानि या लाभ की अवस्था नहीं होती— अपने-आप को वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से एकाकार कर लेता है। उसे पड़ोसी की मृत्यु पर दुःख होता है तो, वियतनाम में भी किसी व्यक्ति की मृत्यु पर दुःख होता है, दोनों ही अवस्था मेंराबर दुःख होता है है ही ही्थ. यदि बंगाल मे भूकम्प आता है और उसको दुःख होता है तो अमेरिका के किसी प्रांत में भूकम्प आनेर भीœuvre
Plus d'informations उसके मन में यह भाव पैदा नहीं होता कि मैं भारत, पाकिस्तान, अमरीका या वियतनाम कiner है- उसको उतना ही दुःख व्याप्त होता है जितना उसके घर में क्षय होने पर व्याप्त होता है, क्योंकि वह अपने. वह किसी एक सtenir
पाचंवी अवस्था 'प्राण अवसtenir वह किसी भी सtenir ही नहीं नहीं, कड़वा खाने पर उसे किसी प्रकार का बोध नहीं होता, मीठा खाने पर भी उसे किसी प्रकार का बोध नहीं होता— यह पागलपन की स्थिति नहीं. माध्यम से जीवित रहता है, शरीर के माध्यम से जीवित नहीं रहता।
यही वह अवस्था है, जहां शरीर समाप्त हो जाता है, और प्राण प्रारम्भ होते हैं।। यही वह अवस्था है, जहां अन्नमय कोष समाप्त हो जाता है, और प्रœuvrevicité अन्नमय कोष से परे हटकर प्राणमय कोष में पहुँचने की जो क्रिया है वह इसी तल से प्रारम्भ होती है हैœuvre , उपनिषद् और कुरान और बाइबिल इन सभी को समान रूप से देखता है- उसे रामायण में वही दिखाई देता है— क्योंकि प्राण स्थिति के माध्यम से तो सर्वत्र प्राण एक साथ हैं— और ऐसी स्थिति में वह किसी घटना का साक्षीभूत बन जाता है, क्योंकि प्राण तो अन्दर से निकली हुई वह तरंग है जो पूरे ब्रह्माण्ड में फैली हुई है पू. किसी भी स्त्री या पुरूष को देखते ही उसका पूरा पिछला जीवन साकार हो जाता है, मात्र पिछला जीवन ही नहीं कई-कई जीवन साकार और स्पष्ट हो जाते हैं- इस क्षण अमरीका में क्या हो रहा है, उसके सामने साकार है, क्योंकि प्राण सर्वत्र व्यापक है।
प्राण को भेद नहीं होता, प्राण तो वह तरंग होती है जो समय के एक सेकण्ड के हजारवें हिस्से में पूरे पृथ्वी के 50 चक्कर लग cérél लेत. उसकी आंखों के सामने हो जाती है है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जैसे टेलीविजन पर्दे पर हम कोई दृश्य देखते है।।. T जाता है तो, उसके सामने से पर्दा हट जाता है, पिछला जीवन उसे साफ-साफ दिखाई देने लग जाता है कि— मैं कौन हूँ हूँ हूँ मैं क्या थात. व्यक्ति खड़ा है, वह कौन सी अवस्था में है है किस अवस्था में था— इससे मेरा क्या सम्बन्ध्ध था, इसके किस मे जीवन क्या सम्बन्ध्ध. में क्या सम्बन्ध होगा और इससे बीस जीवन आगे के जीवन में क्या सम्बन्ध होगा?
Plus d'informations पूरे काल को समग्र रूप से एक साथ देखता है और समग्र रूप से देखने की क्रिया का जो भान होता है- वह प्रœuvreviciणगत अवस्था में पहुंचनेर हीœuvre इसीलिये प्राणगत अवस्था में पहुँचा हुआ व्यक्ति एक उच्चकोटि कiner Plus d'informations Plus d'informations Plus d'informations प्राणगत अवस्था में पहुँचने पर ईश्वर उसके सामने उपस्थित नहीं रहता क्योंकि, जहां ईश्वर का बोध होगा- वहां राम, कृष्ण, नानक, ईसा का बोध होगा— इससे सर्वथा अलग हटकर वहां पर उसके सामने एक ब्रह्म की अवस्था प्रारम्भ हो जाती है- एकमात्र ब्रह्म होता है, जो सर्वत्र व्याप्त है।
प्राणगत अवस्था जीवन की एक उच्चतम अवस्था है, एक श्रेष्ठतम अवस्था है। जहां पर भूख, प्यास, नींद सुख-दुःख विलाप कुछ महत्व नहीं रखता। जहां देश, काल, पात्र महत्व नहीं रखते। वह समस्त संसार को बैठा-बैठा निर्विकार भाव से देखता रहता है। वह समझ लेता है- कहां क्यों हो रहा है, किस प्रकार से हो रहा है। T जाने पर ही संभव होती है। अगला तल 'निर्बीज अवस्था' है। निर्बीज का तात्पर्य है- प्राणगत अवस्था से भी आगे पहुँचने की क्रिया। प्राणगत अवस्था में तो विश्व में या ब्रह्माण्ड में जो घटना घटित होती है, हम उसके साक्षीभूत मात्र होते है, हम केवल द्रष्टा होते हैं, केवल देखते रहते हैं- इस समय अफ्रीका में क्या हो रहा है, न्यूयार्क में क्या हो रहा है, वाशिंगटन में क्या हो रहा है— या मेरी पत्नी क्या कर रही है— वह चुपचाप उसी प्रकार देख सकता है प्रकार वह अपने आसcre.
जब वह इसके आगे बढ़कर 'निर्बीज' अवस्था में पहुँचतiner अपने मन की तरंगों के माध्यम से हिंसा की घटना को रोक सके, उनको परे हटा सके— उस में स्थिति पैदा हो जाती है वह वह एक हिंसक पुरूष को भी अहिंसक बनाती .cre है वह एक एक हिंसक.. T
क्योंकि उसमें क्षमता प्राप्त हो जाती है कि वह प्रकृति में हस्तक्षेप कर सके। मनुष्य के विचारों में हस्तक्षेप करके उसके अनtenir । इतनी हिंसायें होती हैं उन हिंसाओं को दूर करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है। लोभ के वशीभूत होकर जितनी हत्याएं हो रहीं हैं- उस लोभ को, उस पाशविक प्रवृति को मनुष्य के अन्दर से हटाने की्षमता, ऐसे्य्ति्तिर आ ज. उसे यह कtenir Plus d'informations
एक हिंसक व्यक्ति चाकू से किसी को घायल कर सकता है और— यदि निर्बीज सम्पन्न व्यक्तित्व उसकी उस भावना को हटाकर उसके हाथ में पेंसिल और कागज दे देता है तो, वो एक अच्छा चित्र भी बना सकता है— उसमें हिंसात्मक प्रवृत्ति थी, पर हिंसात्मक प्रवृत्ति ही पेंसिल के माध्यम से सुन्दर चित्रकारी में परिवर्तित हो गयी— पूरा रूपान्तरण ही कर दिया— प्रवृत्ति तो रही पर प्रवृत्ति को रूपान्तरित कर दिया— यह उच्चतम अवस्था है, यह महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि, ऐसा ही व्यक्ति गुरू बनने का सामर्थ्य रखता है, यहीं Plus d'informations अभी तक इसके पूर्व जो अवस्था थी, वह केवल गुरू की अवस्था थी। लेकिन इस तल पर एक सद्गुरू बनता है, क्योंकि उसकी भावना यही रहती है- '' मैं अपने Dieu धारणा दूं।''
इसके आगे की स्थिति 'मनस अवस्था' है। इस तल पर सम्पूर्ण रूप से मन को अपने हाथों में लीन कर देने की प्रवृति है। इस जगह पर पूर्ण समाधि, पूर्ण निश्चिन्तता प्राप्त करने की अवसtenir सातवें तल को जब वह स्पर्श करता है तब पूर्ण ध्यान अवस्था होती है- - जहां अपना कोई होश नहीं हतcremine पूर्णता प्राप्त होता है। उसके मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह नहीं होता, उसके अन्दर किसी प्रकार की कोई्रवृति नहीं होती। T सकता है। मन को रूपान्तरित कर, एक डाकू को वाल्मीकि बनाया जा सकता है— उसको ऊंचाई पर उठाया जा सकता है- उस जगह जगह उस__ère. जब मनुष्य उस जगह पहुँच जाता है फिर भले ही उसकी आंखें बंद हों हों, तब भी्यानावस्था में होता है। फिर भले ही उसकी आंखें खुली हों, तब भी ध्यानावस्था में होता है।
Question: इसे किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? इसे प्राप्त करने के लिए जो रास्ता बताया गया है, इस रास्ते पर चलने की्रिया को समझना आवश्यक है क__ère हो सकता है प्रारम्भ में यह पगडण्डी अटपटी हो या हो सकता है कि यह राह अपने आप में अस्पष्ट हो क्योंकि, मनुष्य को यह ज्ञान नहीं है .cre ज. यहां पर गुरू की आवश्यकता होती है— इन कठिनाइयों से बचाने के लिए ही एक सहारा, एक माध्यम के ूप ूप में्गुरू की्यकता पड़ती है।। ूप सद्गुरू की्यकता पड़ती है।।। में. यह आवश्यक नहीं कि गुरू हो तभी ध्यानावस्था में पहुंचा जा सकता है— प्रयत्न करके भी पहुँचा जiner-सकत.
इस रास्ते में कांटे ज्यादा हो सकते हैं हैं, उसमें झाड़, झंखाड़, ज्यादा हो सकते हैं, भटकने की क्रिया हो सकती हैœuvre इसीलिये इसको प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि कोई सहायक हो, कोई सहारा हो, कोई माध्यम हो हो, कोई गुरू हो जो सही अर्थों में सद्गुरू हो में. Plus d'informations Plus d'informations फिर वह भले ही गैरिक वस्त्र पहने हुए हो या सामान्य श्वेत वस्त्र पहने हुए हो्त्र अपने्वेत वस्त्र पहने हुए हो्त्र अपने आप कोई महत्व नहीं नहीं खतcre. Plus d'informations महत्व रखती हैं तो- उसका चिन्तन, उसकी गहराई में उतरने की क्रिया, इस रास्ते पर चलने का भाव।।।।।।।। Plus d'informations
जो इस रास्ते पर चल कर ध्यान की अवस्था तक पहुंच गया है, ऐसा कोई्गुरू मिल जाता है तो्य का सौभ्गु्य. ऐसा गुरू मिल जाता है तो मनुष्य जाति का सौभाग्य होता है कि उस युग में किसी ऐसेरू ने जन्म लिय. यह मनुष्यता का अपने-आप में सौभाग्य होता है कि उसके बीच में ऐसा कोई सद्गुरू है। उन व्यक्तियों को अपने-आप में सौभiner जीवन में श्रेष्ठतम सौभiner जिसके जीवन में यह घटना घटती है, वह अपने आप में महत्वपूर्ण और अद्वितीय घटना होती है- यही महोत्सव होता है, यह महारास की्था होती है। है, यह महारास की्था होती है।
यह जीवन में एक उछाल की अवस्था होती है, मनुष्यता से आगे चल कर पूर्णता की्रिया प्राप्त होती है।।. जिसके जीवन में भी यह बिन्दु घटता है, उसकी तुलना तो देवता भी नहीं कर सकते। फनुष्य जाती उसकी ऋणी हो जाती है। यदि ऐसा ही कोई व्यक्ति मिले तो उसके बताये हुए रास्ते पर चल कर, इन सातों स्थितियों को प्रœuvreviciत. जब व्यक्ति ध्यानावस्था में पहुँच जाता है, तब फिर जीवन में कुछ भी बाकी नहीं रह जाता। Plus d'informations Plus d'informations
Plus d'informations Plus d'informations तब उसके चरणों में हजारों-हजारों राज मुकुट बिखरे हुए पड़े रहते हैं। तब ऊंचे-ऊंचे श्रीमंत उसके चरणों में नमस्कार करते हुए दिखाई देते हैं। क्योंकि कई हजार वर्षों बाद ऐसा व्यक्तित्व अवतरित होता है— जन्म नहीं लेतœuvre Plus d'informations इसलिये ऐसे व्यक्ति का जिस पीढ़ी में भी अवतरण होतiner उसी पीढ़ी को यह सौभाग्य प्राप्त होता है, जिस पीढ़ी के समय एक सद्गुरू इस्वी तलर अवतरण होत.
बार-बार ईसा मसीह पैदा नहीं होते, हजारों वर्षों के बाद ईसा मसीह पैदा होते हैं। Plus d'informations हर वर्ष कृष्ण पैदा नहीं होते, राम पैदा नहीं होते, हर दस-व वर्ष बाद बुद्ध पैदा नहीं होते होते— कई हजारों वर्षों बाद पैदा होते हैं हैंœuvre हिंसा, द्वेष, मार-पीट, छल-कपट और लड़ाइयiner ऐसा व्यक्ति होता है, वह पीढ़ी अपने आप में महत्वपूर्ण होती है है क्योंकि उसके सम्पर्क में उसके अहसास में में वातरणर्क में क एकास में उपस्थित्ली्लीœuvre में आते हैं। वे उसके पास की क्रिया कर सकते हैं, वे ही उसके सान्निध्य में हने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।।.
ऐसा ही व्यक्तित्व मनुष्य की उंगली पकड़ कर उस जगह पहुँचा देता है जहां देह की सातों अवस्थायें समाप्तlan होकर, ध्यान की्थायें प्रœuvre जो ध्यान की अवस्था है, वह अपने-आप में पूर्णता की अवस्था है, एक से से समुद्र बनने की अवस्था है, प्रœuvrevice
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
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