अक्सर यह सुना जाता है, कि आज मेरा मूड ठीक नहीं है है, इस काम में मन नहीं लग रहा है, आज खाना खाने की्छा नहीं है, आज मेरा हृदय काफी्यथित्छ. अतः निश्चित है, कि व्यक्ति का व्यवहार उसकी मनः स्थिति के उपर निर्भर करता है।। के. जैसी मन की स्थिति होती है, शरीर वैसा ही होता है, मन के दुःखी होने से हम भी दुःख अनुभव करने लगते है।
आलस्य, प्रमाद, अहंकार भी मन के ही उत्पाद हैं, जैसे मन कहता है, वैसा ही शरीर करता है और ऐसा इसलिये होता क्योंकि हमरता है और ऐसा इसलिये होता, क्योंकि हमाnerci. मन हमारा मालिक बन गया है। ऐसी स्थिति में हम अपने विवेक से निर्णय नहीं ले पiner तथा व्यक्ति उसका गुलाम बन कर उन विषम वासनाओं में लिप्त हो जाता है। मन ही मोह उत्पन्न करता है। अतः यह स्पष्ट है है, कि यदि इन काम, क्रोध, मोह, लोभ, आलस्य आदि बुराइयों पर विजय प्राप्त करनी है बुराइयों पर विजय प्राप्त करनी है तोlan. जब हम मन को सदtenir से परे हो जाता है, वह आसक्ति से परे हो जाता है, तब हम लालसा-वासना की स्थितियों से भीर उठ जाते है।। की.
इसीलिये ज्ञानी पुरूषों ने कहा है, कि कुकामनाओं का त्याग कर मन को निर्विकार बनाओ। जब मन निर्विकार होगा तो कुत्सित इच्छाओं पर नियंत्रण प्राप्त हो सकेगा, तभी्ति का नाश होगiner अतः मन को निर्विकार और निर्विकार बनाना ही बंधन मुक्त होना है, संन्यस्त भाव है। अतः साधक का या प्रथम कर्त्तव्य है, कि वह मन पर नियंत्रण प्राप्त करने का प्रयत्न करें, आसक्तिf. यद्यपि यह कठिन है, परन्तु मन में अडि़ग धारणा से ही सब कुछ सम्भव हो पाता है। क्योंकि मन की चंचलता को समाप्त कर उसमें पुरूषोत्तममय चेतना का विस्तार होना प्रारम्भ हो जाता है।
यह स्पष्ट है, कि व्यक्ति के स्वयं के हाथ में ही है है, कि वह युक्त रहना चाहता है य. जब तक वह देह को ही अपना सब कुछ मानता रहेगा, इन्द्रिय जनित सुख के अधीन रहेगा, तब तक वह बंधन युक्त रहेगा। जब व्यक्ति देह बोध से ऊपर उठता है, मन धीरे-धीरे उसके नियंत्रण में आने लगता है और मन के पूर्ण नियंत्रण होते ही वह सभी पर मन के.
एक बार गौतम बुद्ध से एक भक्त ने प्रश्न किया कई दिनों से मेरे मन में्रश्न्न उठ हœuvre उसी प्रकार सबको आलोकित करने वाले दीपक के नीचे अंधेरा क्यों रहता है? बुद्ध ने मुस्कराते हुये कहा- तुम्हारे मन में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि चंन्द्रमा और दीपक्वाभाविक है कि चंन्द्रमा और दीपक गुणवान होते हुये भी उनमें ऐसाerci विरोधाभ. Plus d'informations
उनकी पूरी बात सुनने से पहले ही शिष्य ने पूछा-कौन-सी बात नहीं आयी? T इसी तरह जहां दुनियाभर के लोग दीपक के प्रकाश से लाभान्वित होने के कारण उसकी प्रशंसा करते हैं वहीं तुम्हें उसके नीचे क क्रशंस°laire. इसका कारण मैं बताता हूं- इस प्रकार बुद्धदेव ने अपना कथन जारी रखा-ऐसा इसलिये होता है क्योंकि जिसका जैसा भाव होतiner हमारे मन में जैसी भावनायें पनपती हैं, हम उन्हीं के वशीभूत हो जाते हैं।
इसलिये हमें अपने मन के दर्पण को स्वच्छ करने पर ही वiner जब मन पूर्ण रूप से नियंत्रित होता है, तभी इन्द्रियां भी पूर्णतः नियंत्रित हो सकेगी क्योंकि सभी इन्द्रियां मन के ही अधीन हैं क्योंकि सभी. जब मन नियंत्रित होगा, जब उसकी चंचलता समाप्त होगी, तभी व्यक्ति साधनाओं या यौगिक क्रियाओं को पूर्णता से सम्पन्न कर सकेगा, तभी वह साधक तत्व की वास्तविक भाव भूमि पर क्रियाशील हो सकेगा, तभी वह साधनाओ में सिद्धता से युक्त हो सकेगा।
यह समtenir जिस प्रकार सिनेमा के पर्दें पर फिल्म चलती है, हम भिन्न, भिन्न दृश्य, व्यक्ति या क्रिया-कलाप देखते हैं हैं लेकिन्यक्म केा क्िय्त. , et plus
Plus d'informations बीच-बीच में बिजली तेजी से कड़कती, चमकती थी। Plus d'informations अंततः वह एक झोपड़ी के द्वार पर पहुंच ही गया, जहां एक वृद्ध फकीर रहते थे। Plus d'informations जब उससे कोई पूछता था कि क्या आपने संसार बिलकुल ही नहीं देखा है, तो वह कहते थे, देखा है, खूब देखा है।। स्वयं में ही क्या सारा संसार नहीं है?
Plus d'informations फिर उसने डरते-डरते द्वार पर दस्तक दी। भीतर से आवाज आयी, कौन है? क्या खोजता है? वह युवक बोला- यह तो ज्ञात नहीं मैं कौन हूं? Plus d'informations Plus d'informations भीतर से हंसी की आवाज आयी और कहा गया जो स्वयं को ही नही ज जानता, वह आनंद को कैसे प पा सकता है? Plus d'informations लेकिन यह जानना बहुत है कि मैं स्वयं को नहीं जाा तह? फिर द्वार खुले बिजली की कौंध में युवक ने वृद्ध फकीर को सामने खड़ा देखा। उनका सौंदर्य अपूर्व था। युवक उनके चरणों में बैठ गया। उसने वृद्ध के चरणों पर सिर रखकर पूछा आनंद क्या ह ? आनंद कहां है?
यह सुन वह वृद्ध पुनः हंसने लगे और बोलेः मेरे प्यप्यरोलेः आनंद अशरणता में है। Plus d'informations, plus d'informations यही भूल है, बाहर खोजते हो, वस्तुतः जो बाहर है, उसे खोजा जा सकता है। जो स्वयं में है, उसे कैसे खोजोगे ? Plus que jamais ! फिर उस वृद्ध ने अपनी झोली से दो फल निकाले और बोले मैं ये दो फल तुम्हें देता हूं, ये बड़े अदभूत फल हैं।। तुम. पहले को खा लो तो तुम समझ सकते हो कि आनंद क्या है और दूसरे के खा लो तुम तुम्वयं ही आनंद हो सकते है।। लो तुम तुम्वयं ही हो सकते सकते है। लेकिन एक ही फल खा सकते हो क्योंकि एक के खाते ही दूसरा विलीन हो जiner Plus que jamais ! वह युवक थोड़ी देर झिझका फिर बोला मैं आनंद को पहले जानना चाहता हूं, क्योंकि जाने बिना उसे पाया ही कैसे जा सकता हैं? Plus d'informations ऐसे तो वर्षों नहीं, जन्मों के बाद भी आनंद नहीं पाया जा सकता।
इसीलिये तो मनुष्य पेड़-पौधों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों से भी ज्यादा दुःखी है। वह आनंद नहीं है, वह केवल दुःख के प्रति मूर्च्छा का अज्ञान और दुःख प्रति बोध का भाव को समझतर दुःख प्रति बोध का भाव को आनंद समझता है।।।।। बोध बोध. ज्ञान और अज्ञान दोनों से मुक्ति। मन से ही मुक्ति और मन से मुक्त होते ही व्यक्ति स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है।।. वह स्वरूप-प्रतिष्ठा ही आनंद है वही मोक्ष, स्वतंत्रता है। वही अहं ब्रह्मसिं का भाव है।
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