Santé
Plus d'informations Plus tard, plus tard, Plus d'informations Plus d'informations Plus d'informations Tous les autres Plus d'informations ाम तथा विशेष आसनों से ही शरीर निरोगमय रहता है।
Diète
Plus d'informations जिससे स्वास Joh इसलिए हमारे शास्त्रों में आहार शुद्धि पर बहुत जोर दिया है, एक प्रसिद्ध कथन है, जैसा अन्न वैसा मन मनुष्य जिस प्रकार का अन्न ग्रहण करता है उसके विचार बुद्धि, कार्य कलाप भी उसी तरह के हो जाते है, आहार को भी तीन भागों में बांटा है एक तो अधिक खट्टे, तीखे मिर्च वाले अधिक कड़वे गरमा गरम व अत्यन्त रूखे राजसी आहार व दूसरा बासी सड़ा हुआ, जूठा, अपवित्र व दुर्गन्ध युक्त, मांस मदिरा आदि तामसिक आहार तथा तीसरे न्याय और धर्म से उपजित अन्न तथा सद् कमाई से उपाजित सात्विक आहार ही ग्रहण करना चाहिए।
तामसिक व राजसिक पदार्थ के सेवन से काम, क्रोध, तृष्णा, उदिघ्नता, मोह अभिमान की वृद्धि से शरीर रोग ग्रस्त हो ज वृद्धि से शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है शरीर रोग ग्रस्त. उक्त पदार्थ स्वास्थ्य को बिगाड़ देते है, जिससे साधक अपने साधना पथ से गिर जाता है, यथा सम्भव आहार अल्प व सात्विक.
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साधक की साधना में तीसरा सबसे बड़ा विघ्न शंका है, जब एक बार साधक गुरू के कहनेर एक साधना में लग जाता है तो उसेर एक Dieu तो्धि. उदाहरण एक विशेष 11 दिन का अनुष्ठान है और जब पाँच छः दिन गुजर जाने पर उसे किसी्रकार की अनुभूति नही तो तो सर अपनी स पाधनाerci मैंने रखा है, मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठित है या नहीं नहीं ठीक होती तो अब तक कुछ न कुछ अनुभूति या लाभ अवश्य होता, हो कुछ हो स अनुभूति या लाभ अवश्य होता, हो न हो स. बढ़कर हावी हो जाता है, फलस्वरूप कई साधक तो अनुष्ठान पूरा करने से पहले ही छोड़ देते हैं और पूरा करते भी हैं तो पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ नहीं सम्पन्न करते हैं, जिससे उन्हें किसी प्रकार की सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है।
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अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दान, तप या कोई भी कर्म असत् कहलाता है, उससे किसी स्वरूप में लाभ नही .asse श्रद्धा ही साधक का मुख्य बल है। श्रद्धा गुरू के प्रति, अपनी साधना के पtenir यथार्थ साधक को तो बुद्ध देव की भांति अटल भाव से साधना को सम्पन्न करना चाहिए।
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अप्राप्य बोधां बहुकल्प दुर्लभं नेवासनात कायनश Joh
इस आसन पर मेरœuvre trait जिससे साधक अपनी साधना में आगे बढ़ सके व जितना वह आगे बढे़गा उतना ही उच्चता की ओर क्faceère
Sadhguru
सद्गुरू का अर्थ कोई विशेष मनुष्य से नहीं अपितु अपितु, जो भी्ञान दे सके शिष्य के जीवन को ऊँचा उठा सके, और उसके जीवन को पूर्णता दे सकें उठœuvre
सच्चे त्यागी, अनुभवी सद्गुरू को शिष्य का मिल जाना भी एक सौभाग्य की बात है्य को सœuvre तंत्र पारंगत योगियों का कहना है कि सद्गुरू से दीक्षा प्राप्त करने से साधक में दिव्यता आती ही है, दीक्षा के प्रभाव से साधनात्मक ऊर्जा का विस्तार होता है और साधक द्वारा साधना सम्पन्न करते समय निश्चिंत रूप से गुरू शिष्य का मिलन होता है और जहां योग स्थितिया Plus d'informations
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T से उसका आदर, मान करने लग जाते है। साधक भी मनुष्य है वह आदर, मान-प्रतिष्ठा प्रिय होते है, ज्यो-ज्यों उसे इनकी अनुकूल साधना सिद्धि की चेतना की्यों.
परिणाम स्वरूप वह ईश्वरीय शक्ति साधना से हट कर अपने सम्मान की वृद्धि में लग जाता है, इसी के फलस्वरूप उसकी साधना में न्यून क्रियायें शुरू हो जाती है, जिससे वह साधना पथ से भ्रमित हो जाता हैं और साधक में ओज, तेज, निस्पृहता, सरलता , सौम्यता और ईश्वरीय श्रद्धा में भी न्यूनता आने लगती है है साधक का सत्व मुखी हृदयœuvre ही जाने। बाहर से नीचे रहकर अन्दर से उच्चता की ओर अग्रसर होना ही साधक जीवन के लिए्याणप्रद है।। जीवन जीवन के कल्याणप्रद है।
célibat
T अतः साधक को चाहिये कि न तो ऐसी कोई क्रिया करें न ऐसा संगत ही करें तथा न ऐसे पदार्थो का सेवन करें कि जिससे उसका ब्रह्मचdui विवाहित साधकों स्त्री या पुरूष को भी परमार्थ साधना के लिए यथा साध्य शीलव्रत पालन करना चाहिए।।।.
हनुमान जी ने आजीवन ब्रहtenir Plus d'informations जिनके प्रभाव से वह महान और सूक्ष्म से सूक्षtenir तात्पर्य यही है कि साधक का पूरा ध्यान चिन्तन अपनी साधना के भावों व्वयं के साथ-साधनcre
vœux
T चित को सदा दूर रखना चाहिये अर्थात् साधना करने हेतु नाप तोल का भाव चिन्तन नहीं रखना चाहिये।।.
défaut
Plus d'informations साधक को इस बात से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए कि दूसरे क्या करते हैं। साधक को तो अपनी साधना में निरन्तरता बनाये रखनी चाहिए, जिससे उन्हें दूसरों में दोष देखने का समय ही न मिले और जिन्हें दूसरों में दोष देखने की आदत पड़__प__गprises होकर. दोष तो अपने देखने चाहिये कि साधना की गतिशीलता में कहां-कहां अवरोध आ रहे है और उसका मैं निरन्तर निदान करता रहूं।
aime ta mère
Shobha Shrimali
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